________________
पत्रावलि-१
'होवानुं जे जरूर ते, महंतने पण थाय; नीलकंठने नगनपणुं, साप सोया हरिराय. नहि बनवानुं नहि बने, बनवं व्यर्थ न थाय;
कां ए औषध न पीजिये, जेथी चिंता जाय? - धैर्य धारण करना कर्तव्य है। पुरुषार्थ कर्तव्य है। यथाशक्य प्रमादको छोड़कर धर्माराधन कर्तव्य है। सत् उपयोगमें अधिक रहना कर्तव्य है। व्यावहारिक प्रसंगमें घबराहट कर्तव्य नहीं है।
*"मनचित्यु ते इम ही ज रहे, होणहार सरखं फल लहे;
गुरुसाखे कीधां पचखाण, ते नवि लोपे जातें प्राण.
व्रत लोप्ये दुःख पामे जीव, इस भावतें रहे सदीव." x"मोटुं कष्ट गरथ मेळतां, महा कष्ट वळी ते राखतां; लाभहाणि बेउमां कष्ट, परिग्रह इण कारणे अनिष्ट."
१०३ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास,
भाद्रपद वद ५, १९८४ कलियुग है। आयुष्यका भरोसा नहीं है। देह क्षणभंगुर है। अन्यत्र कहीं भी दृष्टि करने जैसा नहीं है। हमें अपना कार्य पूरा कर चला जाना है। वृद्धावस्था हो गई है। ज्ञानीका वचन तो ऐसा है कि सर्व समय सावचेत रहना चाहिये, जाग्रत रहना चाहिये । 'जहाँसे भूले वहींसे फिर गिर्ने, समझे तभीसे सबेरा।' हे प्रभु! उदयाधीन वृत्ति चलित हो जाती है, पर चल-फिरकर किसकी ओर देखें? जो ज्ञानीकी आज्ञा है उसी दृष्टिसे रहें।
इस कालमें आत्माकी पहचानवाले, आत्माके भाववाले जीवात्मा थोड़े हैं, विरले हैं। लिखा जा सके वैसा नहीं है। अपने-अपने मनमें सभी मगन हैं। सबका भला हो!
१०४ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास सं.१९८४ इस संसारमें एक धर्म ही सार है। मनुष्यभवकी प्राप्ति दुर्लभ है। जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, व्याधि, दुःख, आकुल-व्याकुलतासे संपूर्ण लोक त्रिविध तापसे जल रहा है, उसपर विचार करें तथा निश्चय करें कि अज्ञानसे सद्विवेक पाना दुर्लभ है। अतः इस जीवको यथाशक्य पूरे दिनमें घंटाआधा घंटा रात या दिनमें एकांतमें बैठकर भक्ति-भावना, वाचन-चिंतन करना चाहिये जी।
१. जो होनहार है वह महापुरुषको भी होता है। प्रारब्ध बदलता नहीं है। दृष्टांत-नीलकंठ (शिव) को नग्न घूमना पड़ता है और हरिराय (विष्णु) को साप (शेषनाग) पर सोना पड़ता है।
* मनमें सोचा हुआ यों ही रहता है और जो होनहार है वही होता है। गुरुकी साक्षीसे जो प्रत्याख्यान (त्याग) किया हो उसे प्राणत्याग होने पर भी भंग नहीं करना चाहिये । व्रतभंग करनेसे जीव बहुत दुःख उपार्जन करता है अतः व्रतके भावमें ही सदा रहना चाहिये।
x धन प्राप्त करनेमें महा कष्टकी प्राप्ति होती है और उसकी रक्षा करनेमें भी महा कष्ट है। धनकी प्राप्ति और नाश दोनों दुःखदायक है इसीलिये परिग्रहको अनिष्टकारी कहा है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org