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पत्रावलि-१
६५ सद्वचनका सन्मान करें। ऐसे भाव रखेंगे तो अवश्य सुखको प्राप्त करेंगे जी। सत् आत्मा, सद्गुरुकी प्रतीति करने-करवानेमें ही कल्याण है जी।
दुःख आनेपर सहन करें। आत्मा देहसे भिन्न है जी। शमभाव, समता, धैर्य, क्षमा।
शांतिः शांतिः शांतिः ***
१०० श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, सं.१९८३ श्रीमद् परमकृपालु देवाधिदेव सद्गुरुदेव श्री राजचंद्र शुद्ध चैतन्यस्वामी सहजात्मस्वरूप परमगुरुको त्रिकाल नमस्कार हो! त्रिकाल शरण हो! जय श्री गुरुदेव! जय गुरुदेव! जय गुरुदेव! गुरुदेवकी जय हो! जय हो!
निर्भय रहें। मृत्यु है ही नहीं। किसी भी प्रकारसे चित्तमें खेद, हर्षशोक न लाकर, किसी प्रकारका संकल्प-विकल्प न कर, अंतःकरण-मनमें हर्षोल्लास लावें। दुःखको जान लिया, वह तो जानेवाला है, उसका शोक न करें। जैसे म्यानसे तलवार भिन्न है, वैसे ही देहसे आत्मा भिन्न है। देहके कारण व्याधि, पीड़ा होती है, वह तो जानेके लिये ही आई है।
आत्मा है, उसे सद्गुरुने यथातथ्य जाना है। जैसा उन्होंने जाना है, वैसा मुझे मान्य है, भवोभव उसीकी श्रद्धा हो! मैंने तो अभीसे उसे मान्यकर, श्रद्धा प्रतीति रुचि सहित किसी संतसमागमके योगसे जाना है, वह मुझे मान्य है जी। अब मुझे कुछ भय नहीं रखना है। उदयकर्मसे जो माना जाता है, भोगा जाता है वह मेरा नहीं है, मेरा नहीं है। मैंने जिसे अपना माना है, वह सब मेरा नहीं है, वह सब सद्गुरुको अर्पण है। ज्ञान-दर्शन-चारित्र मेरा है, उसे सद्गुरुने जाना है। वह आत्मा यथातथ्य, जैसा है वैसा, जाना है, वह मेरा है, शेष मेरा है ही नहीं।
यहाँ समाधि है, आप समाधिमें रहें। सर्व वस्तु जो संकल्प-विकल्पमें आती है वह मेरी नहीं है। जितना दुःख दिखाई देता है उसे आत्मा जानता है। आत्माका सुख आत्मामें है। कुछ भी हर्षशोक करने जैसा नहीं है। किसी भी प्रकारसे नुकसानका काम नहीं है । कुछ अड़चन नहीं है। सुख, सुख और सुख है। पाप मात्रका नाश होना है, ऐसा अवसर है। रोग हो वहाँ अधिक कर्म क्षय होते हैं। सब प्रकारसे सुख है। दोनों हाथमें लड्डु हैं। मृत्यु तो है ही नहीं। समता, धैर्य रखकर शूरवीरतासे प्रवृत्ति करें। जितना आना हो आये, उस सबका तो नाश होगा और आत्माकी जीत होगी-निश्चित मानें। हिम्मत न हारें। वृत्ति क्षण क्षण बदलती है। आत्मा मरता नहीं है।
___ ॐ शांतिः शांतिः शांतिः
१०१ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे. अगास
श्रावण सुदी ३, १९८४ "द्रव्यदृष्टिौं वस्तु थिर, पर्याय अथिर निहारि; उपजत-विनशत देखिकैं, हरष-विषाद निवारि."
(कार्तिकेयानुप्रेक्षा)
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