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उपदेशामृत
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पूना, ता.११-१२-२४
"पुत्र, मित्र, घर, तन, त्रिया, धन, रिपु आदि पदार्थ; बिलकुल निजसे भिन्न हैं, मानत मूढ निजार्थ, मथत दूध डोरीनितें, दंड फिरत बहु वार; राग-द्वेष-अज्ञानतें, जीव भ्रमत संसार."
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पेथापुर, ता.८-२-२५,
महा सुदी १५, सोम, १९८१ उदयकर्मके अधीन वेदनाको समतासे-समभावसे धैर्यपूर्वक सहन करना चाहिये। वेदना वेदनीयकर्मकी कालस्थिति पूरी होने पर क्षय होगी। आत्माको इसमें किसी प्रकार घबराना नहीं चाहिये । यद्यपि वेदना तो सब जीवोंको-ज्ञानी, मुनि आदिको-पूर्वबद्ध कर्मके अनुसार सहन करनी पड़ती है। उस वेदनाको सहन करते हुए महापुरुष नहीं घबराये और जो जीव सहन करते घबराते हैं उन्हें वेदना भोगनी तो पड़ती ही है, फिर नये कर्मोंका बंध भी होता है। अतः जो बंध उदयमें आया है उसमें क्षमा रखकर उसको जाने दें। वहाँ पर उस प्रसंगमें आत्माकी भावना करें कि अजर, अमर, अविनाशी, अछेदी, अभेदी, अनाहारी आत्मा है, तथा ज्ञानीपुरुषोंके वचनों पर प्रतीति रखें। जो वेदना जा रही है उसे भोगते हुए निर्जरा होकर आत्मभावका पोषण होता है जिससे सम्यक्परिणाम या मार्गसन्मुखदृष्टि होना संभव है जी।
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पूना, संवत् १९८१ यह जीव अनंतकालसे परिभ्रमण करता, जन्ममरणादि दुःख भोगता आ रहा है, उससे छूटनेका कारण एक सत्पुरुष है। उसे ढूँढकर उसकी श्रद्धासे, उसकी आज्ञानुसार प्रवृत्ति करनेपर जीवका मोक्ष होता है इसमें संशय नहीं, यही यथातथ्य है।
उस सत्पुरुषकी जीवको पहचान होना दुर्लभ है। उसका कारण यह है कि जीव अपनी मतिकल्पनासे ज्ञानीको अज्ञानी मानकर स्वच्छंदसे प्रवृत्ति करता है, वह भूल है। अज्ञानीको ज्ञानी मानकर उसकी आज्ञानुसार चलता है वह भी भूल है। किन्तु ज्ञानीकी दृष्टिसे ज्ञानीको माने और उसकी आज्ञानुसार चले तो जीवका मोक्ष होता है, वह संसारसे मुक्त हो जाता है; ऐसा है।
जीवकी यह भूल अपने सयानापनसे, अपनी मान्यतासे, मोहनीयकर्मके उदयके कारण होती है। इसमें मुख्य दर्शनमोहनीयकर्म दूर नहीं होनेसे, मोहनीय कर्म जीवको घबराहटमें डाल देता है। उसे एक सत्पुरुषका बोध और सत्संग मिलने पर यह भूल दूर होती है।
सत्पुरुषके वचनामृतका वाचन एवं चिंतन आत्मार्थीके लिये आवश्यक है। घबराने जैसा नहीं है। चिंता करने जैसा नहीं है। मार्ग सुलभ है, प्राप्ति दुर्लभ है। धैर्यसे उदयकर्म समभावसे भोगें और वृत्तिको परभावमें जाते रोककर एकमात्र स्मरणमें लगावें। प्रतिदिन घंटेभर या जितना अवकाश मिल सके उतनी देर निवृत्ति लेकर स्मरणमें रहें अथवा वाचन-चिंतन करें। परकथा,
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