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पत्रावलि-१
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आपका पत्र पढ़कर खेद, खेद और खेदके साथ रंज हुआ है। अहो! इस जीवको मनुष्यभव पाकर कालका भरोसा करने योग्य नहीं है। लिया या लेगा ऐसा हो रहा है। तब यह जीव किस कालकी प्रतीक्षा कर रहा है? दुर्गतिके कारण एकत्रित करनेमें इस जीवने समय बिताया है। अतः मनुष्यभव प्राप्तकर अब चेत जाना चाहिये और अपने आत्माका कल्याण हो ऐसा करना चाहिये।
धनको प्राप्त करनेमें दुःख, खर्च हो जानेमें दुःख, तो ऐसे क्लेशकारी धनको धिक्कार है! इस देहका पोषण कर सुखकी इच्छा करता है, उसे सुख कैसा मिलेगा, इसका कुछ विचार आता है? आत्मा क्या है और ये संयोग क्या है? और जीव जिसे मान रहा है, वह मिथ्यात्व है यह समझमें कहाँ आया है ? बाँधे हुए कर्मोंको भोगते समय कौन रक्षा करेगा इसका कुछ विचार आता है?
मनुष्यभवको दुर्लभ कहा है। चाहे तो थोड़े समयमें मोक्ष हो सकता है और सर्व सुख प्राप्त कर सकता है। फिर भी जीव अपने स्वच्छंदसे, अपनी इच्छासे, अपनी समझसे जो प्रवृत्ति करता है, वह इस जीवको महादुर्गति-दुःखका कारण होगा। उस समय कौन छुड़ानेमें समर्थ होगा? पुनः ऐसा योग कहाँ मिलेगा? यह चिंतामणि समान अवसर निकल गया तो फिर पृथ्वी, पानी, निगोदमें अनंतकाल परिभ्रमण करना पड़ेगा। उसकी दया करनेका यह अवसर है या नहीं? यदि जीव श्रद्धा रखकर जीवके हित-कल्याणके लिये नहीं चेतेगा तो फिर उसका परिणाम बुरा होगा।
अभी सावधान होनेका समय है। अनार्य जीवोंका संग-समागम, अनार्य देश, ये तो महा अनर्थकारी हैं, चेतने जैसा है। अतः जैसे भी सब समेट लिया जाय, सावधान हुआ जाय और आत्माकी दया आये वह कर्तव्य है। पत्रमें क्या लिखें? जो समय बीत रहा है वह वापस नहीं आता। अमूल्य क्षण बीत रहा है। 'समयं गोयम मा पमाए' इसका गहन विचारणीय आशय है। क्या करें? योग्यताकी बहुत कमी है। संसारकी प्रवृत्ति करना और मोक्ष मिले ऐसा मानना, यह कैसे संभव है? संसारके भोग-वैभवमें रहना, संसारका सेवन करना, उसमें प्रेम प्रीति रखना और वृत्तिको ठगना, क्या ऐसा मार्ग होगा? विशेष क्या कहें ?
श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास
आश्विन वदी ११, सोम, १९८२ हमें तो अपना कल्याण करना है जी। उसके साथ किसी जीवात्माका हित हो तो अपना हित समझना चाहिये । परमकृपालुदेवके वचन याद आनेसे यहाँ पत्र द्वारा विदित किया है, वह यह है कि, “हे मुनियों! बाहर निकलेंगे तो केवल विक्षेप ही भरा है।" ___ आत्माका मूल ज्ञान क्षायिक और पारिणामिक भावसे रहा हुआ है। वह हानि या वृद्धिको प्राप्त नहीं होता, उसे भूल कर देहादिमें आत्मबुद्धि की है और रागद्वेष मोहादि प्रकृति भावपरिणाममें आत्मबुद्धि की है। मैं ज्ञानी हूँ, अज्ञानी हूँ, क्रोधी हूँ, मोही हूँ इत्यादिमें आत्मभ्रांति हुई है, वह भी भूल है। उसे टालनेके लिये सत्समागममें उसका विचार करना योग्य है। देहमें जो आत्मबुद्धि है वह संसार बढ़ाती है और आत्मामें जिसे आत्मबुद्धि है वह मुक्ति प्राप्त करता है। ऐसे
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