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उपदेशामृत
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सनावद, सं.१९७६ जैसे हो सके वैसे भक्ति-भावना, त्याग- वैराग्य, आत्मभावमें जैसे-जैसे विशेष असंग एक आत्माके साथ वृत्ति संलग्न हो सके वैसा करना चाहिये जी । 'सर्वव्यापक सच्चिदानंदके समान मैं आत्मा हूँ' ऐसा चिंतन और ध्यान करना चाहिये जी । परमार्थमें यह देह बीते तो आत्माका कल्याण होगा । अपने स्वच्छंदको रोककर निःस्वार्थ प्रवृत्ति करना योग्य है ।
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वेदनीय कर्म - जो-जो साता असाता आवे उन्हें सम्यक् अर्थात् समभावसे भोगने पर बँधे हुए कर्म छूट जाते हैं । किन्तु पुनः बंध न हो यह भाव तो एकमात्र आत्मभावना है । द्रष्टा आत्मा है, वह जानता है, ऐसा सोचकर आत्मानंदमें काल व्यतीत करना चाहिये ।
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५७ सनावद, ता.५-११-२०, धनतेरस, सं. १९७६ तत्सत्
'सहजात्मस्वरूप परमगुरु'
महादेव्याः कुक्षिरत्नं शब्दजितवरात्मजम् । राजचंद्रमहं वंदे तत्त्वलोचनदायकम् ।।
प्रगट पुरुषोत्तमको नमस्कार ! नमस्कार !
“आभ्यंतर भान अवधूत, विदेहीवत्, जिनकल्पीवत्, सर्व परभाव और विभावसे व्यावृत्त, निजस्वभावके भान सहित अवधूवत् विदेहीवत् जिनकल्पीवत् विचरते हुए पुरुष भगवानके स्वरूपका ध्यान करते हैं । "
ज्ञान - दर्शन - चारित्र, असंग, अप्रतिबद्ध आत्मा समझें ।
समता, क्षमा,
धैर्य, समाधिमरण, विचार, सद्विवेकको जानें।
आत्मा है, नित्य है, कर्ता है, भोक्ता है, मोक्ष है, मोक्षका उपाय है। यह पत्र विचारणीय है जी । हे जीव ! कुछ सोच, विचार, कुछ चिंतन कर, विराम प्राप्त कर विराम । ऐसा समझ, छोड़ना पड़ेगा ।
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“जहां कलपना जलपना, तहां मानुं दुःखछाय;
मिटे कलपना जलपना, तब वस्तु तिन पाय."
मैत्री, प्रमोद, करुणा, मध्यस्थता ये चार भावनाएँ करनी चाहिये ।
अनुप्रेक्षाके चार भेद हैं
(१) एकत्वानुप्रेक्षा अर्थात् आत्मा एक है, नित्य है । (२) अनित्यानुप्रेक्षा अर्थात् आत्माके सिवाय शेष सब अनित्य है । (३) अशरणानुप्रेक्षा अर्थात् आत्माके सिवाय अन्य किसीकी शरण नहीं है। (४) संसारानुप्रेक्षा अर्थात् आत्माकी शरण नहीं लेनेसे संसारमें परिभ्रमण करना पड़ता है । " हे जीव ! तू स्थिर दृष्टिसे अंतरंगमें देख, तो सर्व परद्रव्यसे मुक्त ऐसा तेरा स्वरूप तुझे परम प्रसिद्ध अनुभवमें आयेगा ।"
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