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उपदेशामृत सद्गुरु देवाधिदेव परमकृपालुके वचनामृतमें अनेक स्थानों पर आत्मा यथातथ्य, जैसा है वैसा बताया है। 'एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, सव्वं जाणइ से एगं जाणइ' इसका सद्गुरुसे अत्यंत महान परमार्थ जाने तो वेदनीय आदि कर्म आने पर उदास न होकर उदासीनता (समभाव) प्रकट हो तो कल्याण है जी। जिसकी बाह्यवृत्ति क्षय हुई है और अंतरवृत्ति आत्मभावनापूर्वक रहती है, उस जीवात्माका कल्याण होगा जी। आपने परमार्थबुद्धिसे सेवाभक्तिकी जो भावना प्रदर्शित की, उस भावकी आपको सफलता है जी।
यद्यपि मनमें तो आपको पत्र लिखनेका विचार आता था, किन्तु अंतरवृत्तिमें अनेक कारण आपके लिये विघ्नकारक देखकर वृत्ति-संकोचन किया था। आज आपको यह पत्र लिखना हुआ है, किन्तु अंतरंगमें आपको जो कहना था वह लिखा नहीं गया; मात्र परमार्थके लिये, अंतरमें स्वार्थरहितपनेसे, निःस्पृहासे आत्माका कल्याण हो वह स्पष्ट बताना था। आपकी समझ और चिंतन आपके क्षयोपशमके अनुसार है। उसमें 'मुझे कुछ कुछ समझमें आता है' 'मैं समझता हूँ' ऐसा रह गया देखता हूँ, ऐसा हमारी समझमें आनेसे कहना या लिखना नहीं हुआ है जी। ____ अब आपको जैसा कहना मुझे यहाँ स्मृतिमें ठीक लगा, वह सहज लिख रहा हूँ जी। आप जानते ही हैं कि कालका भरोसा नहीं है, प्राण लिये या लेगा ऐसा हो रहा है। यह स्वप्नवत् संसार त्रिविध तापसे जल रहा है, इसमें कुछ सदा एक जैसा रहेगा ऐसा दिखाई नहीं देता; सब क्षण-क्षण बदलता चंचल पुद्गल संयोगवाला लगता है, वह अपना न होने पर भी 'मेरा' माना जाता है उसमें जड़-चेतनका विचार-भेदज्ञान, ऐसा संयोग प्राप्त करके भी, समझमें नहीं आया तो फिर अनंतकालसे जैसा होता आ रहा है वैसा ही होगा यों समझ लें । एक जो करना समझना है वह क्या है ? इस पर विचार करना चाहिये। यदि वह नहीं हुआ तो फिर? अतः आपको वह करना है जी।
यह जो लिखना हुआ है, वह कुछ पूर्वके संयोगसे हुआ है जी। आपके कल्याण-आत्महितकी इच्छासे लिख रहा हूँ कि आत्माने आत्माको ढूँढनेके लिये समय नहीं बिताया है। जगतके जीव संसारमें मान-बड़प्पनके लिये समय व्यतीत करते हैं, उससे आत्मा बंधनसे नहीं छूटता । उसके लिये आप जैसोंको तो जाग्रत रहना चाहिये। उपाधिसे निवृत्तिका आपका बहुत विचार रहता है और आपने अपनी समझके अनुसार वैसा किया भी है, किन्तु जो करना है वह रह गया तो? अतः इस विषय पर कुछ विचार करें।
मंडाला, ता.१-३-२१ सुख-दुःख आने पर सहन करना कर्तव्य है जी।
जैसे हो सके वैसे वृत्तिको रोककर ध्यान, स्मरण, भक्ति, वैराग्यभावसे स्वपर हित हो वैसे करना चाहिये। जैसे भी हो सके अपने निमित्तसे अन्य जीवको कषायका कारण न बने और जैसे सत्धर्म-आत्मभाव पर भक्तिभाव-प्रेम बढ़े वैसी चर्या, आचरण करना चाहिये जी, कुछ खींच-तानकर नहीं करना है। अपना हित-कल्याण करनेके लिये सन्मुखदृष्टि, ध्यान रखकर दूसरोंकी वृत्ति उसमें प्रेरित हो वैसा करने में हित है जी।
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