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पत्रावलि-१ इस जीवने अनादिकालसे सद्देव-गुरु-धर्मको यथार्थ रूपसे नहीं जाना है। वह, यह मनुष्यभव प्राप्त कर, जैसा है वैसा समझमें आये तो आत्माको निर्भय-निःसंग शांति प्राप्त होती है जी। एक गुरुका स्वरूप यथातथ्य विचारमें आये तो जीवका कल्याण हो जाता है। यह संसार स्वप्नसमान है, इसमें एक सद्गुरुका स्वरूप क्या है यह विशेष लक्ष्यमें आये तो उस जीवको सम्यक्त्व हुआ कहा जाता है, यह ध्यानमें-लक्ष्यमें रहना चाहिये । समागममें विचार कर्तव्य है जी।।
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आश्रम, ता.४-७-२२ समता, शांतिका सेवन करें। समभाव-धैर्य रखकर, स्वउपयोगको एक 'सहज आत्मस्वरूप में लाकर, जागृत होकर, धारणासे स्वस्थ होकर, स्थिर द्रष्टाके रूपमें वेदनीय भोगते हुए काल व्यतीत करते हुए उदास न होकर, सदा मगनमें अर्थात् आनंदमें रहना सीखें। उदासीनता अर्थात् समभाव लावें। ऐसा किये बिना छुटकारा नहीं है। वेदनीय सुख-दुःख तो आये बिना नहीं रहेंगे। यह तो उदयाधीन प्रवृत्ति है, इसमें अधैर्य नहीं करना चाहिये, घबराने जैसा नहीं है। अतः किसी प्रत्यक्ष पुरुषकी जो आज्ञा प्राप्त हुई हो उसे संतके मुखसे सुनकर, उसमें अचल श्रद्धा रखकर केवल उस आज्ञामें आत्माको प्रेरित करें। विशेष क्या लिखू? यदि जीव समझे तो सहजमें ही है जी। सब कुछ भूलकर सत्संगमें जो सत्पुरुषके वचन कहे गये हैं उन्हें ही याद करें। आकुल न हों, घबरायें नहीं। जहाँ संकल्प-विकल्प उठे कि तुरत मनको उस महामंत्रमें जोड़ देवें । यही विज्ञप्ति है।
जो-जो पत्र आपको कण्ठस्थ हों उसका स्वाध्याय करते तथा जो सीखा हो उसे प्रतिदिन पाठ करते विचारपूर्वक काल व्यतीत कीजियेगा। जीवको घड़ी भर भी निकम्मा न छोड़े, अन्यथा वह सत्यानाश कर देगा। चित्तवृत्ति बहुत संकुचित हो जानेसे कुछ भी पत्र लिखवाना नहीं हो पाता, यह आपको सहज विदित किया है। यदि वासनामें संलग्न हुए हों तो वहाँसे वापस लौटकर आपको जो आज्ञा हुई हो उसमें, आत्मभावमें उपयोग लगाइयेगा, उसीमें आत्मकल्याण मानियेगा। यह भूलने योग्य नहीं है। सब भूल जायें और उस समय द्रष्टा-साक्षी बन जायें परंतु इसे अवश्य न भूलें। “आतम भावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे,
जीव लहे केवलज्ञान रे."
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श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास
अषाढ़ सुदी १०, १९७८ शमभाव, समता, क्षमा, सद्विचारमें रहें। कोई संकल्प-विकल्प उठे कि तुरत वृत्तिको संक्षिप्त कर, जो किसी प्रत्यक्ष ज्ञानीपुरुषकी किसी भाविक जीवात्माके प्रति आज्ञा हुई हो वह, महामंत्र किसी सत्संगके योगसे इस जीवात्माको प्राप्त हुआ हो तो अन्य सब भूलकर उसीका स्मरण करना चाहिये जी। जिससे चित्त समाधिको प्राप्त होकर विभाव वृत्तिका क्षय होता है जी। यही कर्तव्य है जी। सर्व मुमुक्षु जीवात्माको भी यही लक्ष्य होना चाहिये जी।
आपको सत्समागममें विघ्नकारक उपाधि विशेष है जिससे आपका मन खेदको प्राप्त होता है,
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