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[८०] उनका जीवन बच जाय तो उनसे अनेक जीवोंको अद्भुत लाभ होगा। इसके आठ दिन बाद भाद्रपद सुदी ६को वे समाधिस्थ हुए।
मुनिश्री मोहनलालजी महाराजके इस देहावसानसे सबको बहुत वैराग्ययुक्त खेद हुआ। आश्रममें ट्रस्टियोंकी मीटिंगमें उनके अवसानके प्रसंगपर इस प्रकार खेद प्रदर्शित किया गया___ "श्री सनातन जैन वीतराग मार्गके उद्धारक श्रीमद् राजचंद्र देवाधिदेवके उपासक तथा श्रीमद् राजचंद्र आश्रमके मुमुक्षुमण्डलके उपकारी परम पूज्य बालब्रह्मचारी मुनिदेव श्री मोहनलालजी महाराजके ता.६-९-३२ के दिन हुए देहोत्सर्गक लिए आश्रमके ट्रस्टियोंकी यह सभा खेदका प्रस्ताव पारित करती है। उनकी परमकृपालुदेवके प्रति दृढ़ श्रद्धा, प्रेम, भक्ति, आज्ञाकारिता, *सप्रज्ञ सरलता तथा निर्विकारता आदि सद्गुण स्मरणमें रहने योग्य हैं। आत्महितप्रद उपदेश तथा परम कृपालुदेवके प्रत्यक्ष समागमके सुन्दर कथन आदिसे जीवको सन्मार्गमें लानेमें प्रबल निमित्तरूप उनका
* मुनिदेव श्री मोहनलालजीकी सरलतासहित प्रज्ञा प्रशस्त थी। मुमुक्षुओंको आत्मश्रेयके सन्मुख करनेके लिए उनके द्वारा लिखे गये पत्रोंमेंसे निम्नलिखित एक पत्र प्रभुश्रीजीने कुछ एक मुमुक्षुओंको कण्ठस्थ कर विचार करनेका अनुरोध किया था
तत् ॐ सत्
श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे. अगास अनन्य शरणप्रदाता श्री सद्गुरुदेवको अत्यंत भक्तिसे नमस्कार हो! नमस्कार हो! नमस्कार हो!
"तीन भुवन चूडारतन सम श्री जिनके पाय । नमत पाइये आप पद सब विधि बंध नशाय ॥" "ज्ञानी के अज्ञानी जन सुखदुःखरहित न कोय।
ज्ञानी वेदे धैर्यथी अज्ञानी वेदे रोय ॥" पवित्र आत्मा भाई श्री... ___अनन्तकालसे यह आत्मा चार गतिमें परिभ्रमण कर रहा है। उसमें इस जीवने मुख्यतः असाता ही भोगी है। उसे भोगते हुए देहात्मबुद्धिके कारण उसे विशेष क्लेश होता है या उस दुःखके प्रति द्वेष भाव उत्पन्न होता है। जिसके कारण अभी वह जो असाता भोग रहा है उससे अनंतगुनी नयी असाता उत्पन्न करे ऐसे परिणाम यह जीव अज्ञानवश किया करता है। अनंतकालसे महा मोहनीय कर्मके उदयसे यह जीव सुखशाताका भिखारी है। वह इच्छा तो सुखसाताकी करता है किन्तु परिणाम बुरे करता है। अर्थात् पाँच इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्ति, धनादिमें लोभ और ममत्वबुद्धि कर यह जीव अनन्त अनन्त दुःखद कर्मवर्गणाओंको उत्पन्न करता है। पर उसे कभी सच्चे सद्गुरुका योग नहीं हुआ अथवा कभी हुआ भी होगा तो उनकी आज्ञाका भली प्रकारसे निःशंकतासे आराधन नहीं किया। यदि आराधन किया होता तो ऐसी असाताका कारण न होता। अभी भी यदि यह जीव समझे और उदयप्राप्त कर्मोंमें समभाव रखकर निरंतर सत्पुरुष प्रदत्त स्मरण 'सहजात्मस्वरूप परमगुरु' का उत्कृष्ट प्रेमसे ध्यान करे या स्मरण करे तो उसके सर्वकर्मका अभाव होकर परम शांत होनेका अवसर है। इस जीवको जिन जिन कर्मोंका बंध होता है वे उसके अपने परिणामोंका फल है। पूर्वमें जो जो निमित्त प्राप्त कर जैसे जैसे परिणाम किये हैं, उन परिणामोंका फल काल आनेपर उदयमें आता है। वे कर्म अपने ही द्वारा किये गये हैं ऐसा समझकर विचारवान या मुमुक्षु जीव उदयप्राप्त कर्मोंमें समता रखता है। यह समता ही परम शांतिका कारण है अथवा सर्वकर्मके नाशका कारण है। अतः अब संक्षेपमें लिखता हैं क्योंकि आप विचारवान हैं इसलिये आपको विशेष लिखना उचित नहीं लगता।
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