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उपदेशामृत
२१ जूनागढ़, अषाढ़ वदी १०, सोम, १९७२ सहजात्मस्वरूपाय नमोनमः "देखण सरिखी बात है, कहना सरिखी नांहि; ऐसे अवधूत देखके, समझ रहो मनमांहि. १" "गुरु सम दाता को नहीं, जाचक शिष्य समान;
तीन लोककी सम्पदा, सो गुरु दीनी दान. २" __साक्षात् हमारे आत्मा हो! हृदयमें कुछ विकल्प नहीं करें। आपके विचारके लिए कोई कुछ मर्म इन दोहोंमें है जी। परंतु 'धर्म' है वह अद्भुत है। अजर, अमर, अव्याबाध, शुद्ध चैतन्यस्वरूप प्रकाश, घट-घट-अन्तर्यामी, ब्रह्मस्वरूप प्रत्यक्ष पुरुषको नमस्कार हो! क्या कहें?
"कह्या बिना बने न कछु, जो कहिये तो लज्जइये।" सत् साधुजी कुछ वार्ता करते हों वह सर्वथा मिथ्या दिखायी दे तो भी उसे सत्-सत्य मानना, यह आपको कैसा लगता है ? किसी पुस्तकमें हमने पढ़ा है। "सद्धा परम दुल्लहा।"
२२ जूनागढ़, श्रावण सुदी ९, मंगलवार, १९७२ हे प्रभु! आपने पूर्वपक्षवालोंकी जो इच्छा बतायी है वह गुरुप्रतापसे हमारे भी ध्यानमें है। हे प्रभु! 'पीठबल बादशाहका है' ऐसा कहा जाता है। कुछ विकल्प होने जैसा नहीं है। क्योंकि दूर हैं, इसलिए उनकी बात कानमें नहीं पड़ती। वे अपना कल्याण करें। हमें तो सब अच्छा ही है तब, कुछ कहना नहीं है, सुनना नहीं है, किसीके साथ पत्रव्यवहार नहीं है, समभाव है जी। अब तो जैसे हरि रखे वैसे रहनेकी इच्छा है। देखते रहेंगे कि क्या होता है ? हे प्रभु! आप कुछ विकल्प न करें।
बाहरसे किसी पुद्गलको सुननेका निमित्त नहीं है, जिससे शांति है। मात्र अंतर्वृत्तियाँ सद्गुरु शरणसे जैसे सहज शांत हो सकें वैसा पुरुषार्थ हो रहा है जी। जिससे आनन्द होता है। व्यवहारसे जो योगसाधन हो सके वह सहज सहज करते हैं, उसके द्रष्टा रहनेसे शान्ति है जी। एक आत्माके सिवाय सब मिथ्या है, फिर विकल्प कैसा?
शांतिः शांतिः शांतिः
२३ जूनागढ़, श्रावण वदी २, सोम, १९७२ आपको यहाँसे कोई पत्र नहीं लिखनेका कारण यही है कि यहाँसे पत्र लिखनेकी चित्तवृत्ति संकुचित कर ली है। यहाँ सत्संग-समागम, वचनामृत-श्रवण, विचार, अनुभव चलता है जी।
__ वृद्धावस्थाके कारण दिन-प्रतिदिन देहमें शिथिलता, अशक्ति दिखायी देती है। शुभाशुभ उदयको समभावसे द्रष्टा साक्षी बनकर देख रहे हैं।
___ यहाँ गुरुप्रतापसे शांति है। निवृत्तिक्षेत्र, और योगियोंके ज्ञान-ध्यानके स्थान आदि यहाँ तीर्थक्षेत्रमें हैं। परंतु आत्मार्थीको तो अनुभव है कि जो ज्ञानी वृत्तिमें निवृत्तिको प्राप्त हुए हैं, समझे हैं, उन्हें सर्वत्र निवृत्ति है जी।
व्यवहारकी चिंताका त्याग करना। जो जानते हो उसका विस्मरण करना जी। चित्तको शुद्ध
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