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उपदेशामृत सबका आत्महित हो, आत्मभावना हो, वैसे हमें स्वपरहित करना चाहिये । परमार्थके लिये देह बिताना है, आत्मार्थके लिये; अन्य किसी इच्छासे नहीं, ऐसा सोचकर शांतिसे रहियेगा । यह सबसे अनुरोध है जी।
वेदनी आने पर, विशेष विशेष सत्पुरुषके वचनामृत पर विचार करें, याद करें; शरीरकी भिन्नता स्मृतिमें रखने योग्य है जी। सम्यक्दृष्टि जीवात्मा असातावेदनीके आनेपर विशेष जागृतिमें रहता है। ऐसा करना उचित है। उसके प्रति हर्षशोक न कर, बँधे हुए कर्म क्षय होनेपर फिरसे नया कर्मबंध न हो ऐसे भावसे आत्मा आत्मदृष्टिसे उपयोग-भावमें स्थिरता धारण करता है जी। अकंप, अडोल, शाश्वत, ज्ञानदर्शनचारित्रमय धर्म पर विचारकर, हमसे हमारा निजभाव कभी छूटा नहीं इसी भावनासे रहता है।
"आतम भावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे."
५१ सनावद, ता. २०-१०-२०, बुध,सं. १९७६ मात्र भावना करें; और स्मरण कर्तव्य है।
सत्पुरुषकी आसातना हो तो दोष लगता है। आत्मभावसे आत्माका कल्याण है। वह आत्मा अर्थात् अपना अंतरात्मा। उस अंतरात्मासे परमात्माकी भक्ति करनी चाहिये। 'मन चंगा तो कथरोटमें गंगा' इस कहावतकी भावना करते हुए “सहजात्म स्वरूप का स्मरण करना चाहिये। बाहरसे मोह करे और विचार न करे तो अनंत कर्मोंका उपार्जन होता है।
१“मने घडी नथी वीसरता राज, सद्गुरु संकटहर्ता." २"मारी नाड तमारे हाथे हरि, संभाळजो रे,
मुजने पोतानो जाणीने प्रभुपद पाळजो रे. (ध्रु०) पथ्यापथ्य नथी समजातुं, दुःख सदैव रहे ऊभरातुं;
मने हशे शुं थातुं, नाथ निहाळजो रे! मारी०१ अनादि आप वैद्य छो साचा, कोई उपाय विषे नहि काचा;
दिवस रह्या छे टांचा, वेळा वाळजो रे! मारी०२ विश्वेश्वर, शुं हजी विसारो, बाजी हाथ छतां कां हारो?
महा मूंझारो मारो नटवर, टाळजो रे! मारी०३ १. संकटहर्ता सद्गुरु मुझे एक घड़ी (क्षण के लिये भी विस्मृत नहीं होते, सदा याद आते हैं।
२. हे हरि, मेरी नाड़ी आपके हाथमें है तो आप मेरा ध्यान रखना, मुझे अपना जानकर अपना प्रभुपद निभाना। मझे पथ्यापथ्यका कछ भान नहीं है जिससे मेरा रोग (द:ख) बढ़ता जा रहा है. मेरा क्या होगा-सोहे प्रभु! आप देखते रहना। मेरे उस अनादि रोगके आप ही सच्चे वैद्य हो, और रोग-निदानमें आप कच्चे नहीं हो अर्थात् सही औषधके ज्ञाता हो । अब समय भी कम बचा है अतः आप जल्दी उपाय करना । हे विश्वेश्वर! आप अभी तक मुझे भूल क्यों रहे हो? ध्यानमें क्यों नहीं लेते? उपाय आपके हाथमें है फिर भी क्यों नहीं करते? हे नटवर! जल्दी उपाय करके मेरी आकुलताको दूर करो। भूधरदास कहते हैं कि हे केशवहरि! अब मेरा क्या होगा? सब कर्मरूपी शत्रुओंने मुझे घेर लिया है तो मेरा सत्यानाश हो जायेगा। तो आपकी ही इज्जत जायेगी क्योंकि मैं तो आपकी शरणमें हूँ इसलिये आप ध्यान रखना।
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