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उपदेशामृत +"लोभी गुरु तारे नहीं, तारे सो तारणहार;
जो तुं तरियो चाह तो, निर्लोभी गुरु धार. १ अदेखो अवगुण करे, भोगवे दुःख भरपूर; मन साथे मोटाई गणे : 'हुं जेवो नहि शूर. २ परमेश्वर परमातमा, पावनकर परमीठ; जय! गुरुदेव, देवाधिदेव, नयणे में दीठ. ३ गुण अनंत प्रभु, ताहरा ए, किमहि कथ्या नव जाय; राज प्रभुना ध्यानथी, चिदानंद सुख पाय. ४
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जूनागढ़, श्रावण वदी ३०, सोम, १९७२ आप सर्व मुमुक्षुभाई (मण्डल) भगवानके समक्ष भक्ति-दोहा आदिका पाठ कर आनंद लेंगे जी। निवृत्तिके समय सब भाई इकट्ठे होकर वाचन-चिंतन करेंगेजी। धर्मभक्ति कर्तव्य है जी। परमकृपालुदेवका चित्रपट है वहाँ पर्युषण पर्वमें निवृत्तिमें मुमुक्षुभाईबहिनोंको दर्शन करानेका बने वैसा आपको याद दिलाया है जी। आप तो वैसा करते ही होंगे। किंतु आठ दिन धर्मके हैं, यह विशेष निमित्त आया है जी, कारणसे कार्य सम्पन्न होता है जी। ___ वचनामृतमें जो कहा है, उसका वाचन, चिंतन कर्तव्य है। योग्यता प्राप्त करनेकी आवश्यकता है जी। त्याग, वैराग्य, उपशम और भक्ति बढ़े वैसा करना उचित है। जब तक जीव इसे सहज स्वभावरूप नहीं करेगा, तब तक आत्मदशा कैसे प्राप्त होगी? स्वार्थसे, प्रमादसे जीवका पुरुषार्थबल नहीं चलता।* आप सब विचार करियेगा।
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___ जूनागढ़, भाद्रपद वदी ७, सोम, १९७२ जितना समय परमार्थमें व्यतीत होगा उतना ही आयुष्य सफल है। अतः परमार्थ क्या है? इसे ढूँढ़कर उसीमें समय व्यतीत करें। “समयं गोयम मा पमाए।"
शांतिः शांतिः शांतिः
जूनागढ़, भाद्रपद वदी ८, मंगल, १९७२ यहाँ गुरुप्रतापसे सुखशांति है जी। "जब जागेंगे आतमा, तब लागेंगे रंग।" बहुत दिनोंसे वृत्ति थी कि एकांतमें निवृत्ति लेनी, गुरुप्रतापसे वह योग मिल गया है। यद्यपि सत्संग तो ठीक है, किन्तु जब अपना आत्मा आत्मविचारमें आयेगा तभी कल्याण होगा। अन्यथा हजार-लाख सत्संग करे, प्रत्यक्ष सद्गुरुके पास पड़ा रहे, तब भी कल्याण नहीं होगा। यहाँ कुछ अद्भुत विचार और ___+ १. लोभी गुरु शिष्यको तार नहीं सकते। जो तारते हैं उसे तारणहार कहते हैं। यदि तू तरना चाहता है तो निर्लोभी गुरुकी शरण स्वीकार कर। २. ईष्यालु दूसरोंकी निंदा करता है, स्वयंको मनसे बड़ा मानता है कि मेरे जैसा शूरवीर कोई नहीं है। वह अनन्त दुःख भोगता है। ३. गुरुदेव ही परमेश्वर, परमात्मा, पावन करनेवाले, परमेष्ठी और देवाधिदेव है। उनकी जय हो! पुण्योदयसे आज मुझे उनके दर्शन हुए। ४. हे राजप्रभु! आपके अनन्त गुण हैं, उनका किसी तरह वर्णन नहीं किया जा सकता। आपके ध्यानसे चिदानंद सुखकी प्राप्ति होती है।
* पत्रांक ६४३
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