________________
पत्रावलि - १
कर चैतन्यका अवलोकन - धर्मध्यान- करें । आत्मसाधनकी श्रेणिपर आरूढ होवे । अनादिकालके दृष्टिक्रमको भूलकर स्थिरता प्राप्त करें ।
✰✰
२४
जूनागढ़, सं. १९७२ पुस्तकका वांचन-चिंतन करेंगेजी । सब मिलकर सत्समागमादि करेंगेजी, वांचन, चिंतन करेंगेजी । भक्ति कर्तव्य हैजी । स्मरण भी भक्ति ही है जी ।
यह जीव अनन्तकालसे मायामें गोते खा रहा है । वह भ्रान्तिमें भटक रहा है। समझे तो सरल है और न समझे तो हरि दूर हैं। पर जीवको प्रतीति नहीं हुई, इसीसे भटक रहा है । कुछ न हो सके तो उसकी (सत्पुरुषकी) प्रतीति, पहचान होने पर स्वतः ही समझमें आयेगा, आयेगा जी ।
""गुरु समो दाता नहीं, जाचक शिष्य समान; तीन लोककी संपदा, सो गुरु दीनी दान, कहना जैसी बात नहि, कहे प्रतीत न आई; ज्यां लागे त्यां लग रहे, फिर पूछेगो आई." "आतम भावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे, " जीव लहे केवलज्ञान रे । २" जीवता नर भद्र पामशे."
शांतिः शांतिः शांतिः
★ ✰✰
१५
२५
३०
३ " गुणीना गुण ग्रहण करो, गुण ग्रहतां गुण थाय; अवगुण ग्रहण अवगुण है, एम कहत जिनराय.”
Jain Education International
" हे करुणासागर ! अपना दासत्व दिखाकर तेरी प्रार्थना करना, ऐसे गुण हमारे आत्माके कल्याणके लिये हमारे आत्मामें स्वाभाविकरूपसे तूने दिये हैं, ऐसा होने पर भी यदि तेरी प्रार्थना न करें तो हम ठग और धर्मभ्रष्ट कहलायेंगे, अतः प्रेमपूर्वक तेरी भक्ति और प्रार्थना करना भूल न जायें ऐसी चेतावनी हमारे अन्तःकरणमें देते रहना ।
जूनागढ़, सं. १९७२
हे महाप्रतापी कृपालु परमेश्वर ! हम सच्चे और पवित्र अन्तःकरणसे तेरा ध्यान कर, श्रद्धारूपी चंदन और भक्तिरूपी अक्षत तेरे मंगल चरणोंमें अर्पित करके तुझे प्रेमपुष्पका हार चढ़ाकर हम अपनी प्रार्थना समाप्त करते हैं । तू प्रसन्नचित्तसे हमारा कल्याण कर ।" ॐ शांतिः शांतिः शांतिः
१. गुरुके समान कोई दाता नहीं और शिष्य जैसा कोई याचक नहीं है । गुरुने तो तीन लोककी सम्पदा दानमें दे दी है। कहने जैसी बात नहीं है और कहने से प्रतीति भी नहीं आयेगी! इस समय तो जीव जहाँ लगा हुआ है वहीं लगा हुआ है, परंतु बादमें (संसारका स्वरूप देखेगा और दुःखोंकी निवृत्ति चाहेगा तब ) आकर पूछेगा ।
२. जाग्रत जीव कल्याणको प्राप्त होगा ।
३. गुणीके गुण ग्रहण करो । गुणोंको ग्रहण करनेसे गुणकी प्राप्ति होती है । किसीके अवगुणोंको देखना दोष है, ऐसा जिनेश्वर भगवंत कहते हैं ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org