________________
पत्रावलि - १
२१
I
पूर्व प्रारब्धसे जो जो उदयमें आता है उसमें पुरुषार्थ करना योग्य है । छूटने के भावकी वृत्तिसे वहाँ जागृत रहना चाहिये, वैसा न हो सके तो खेद करना चाहिये। जैसे भी चित्तको समाधि हो वैसा कर्तव्य है जी ।
सत्बोध है जी : "हे आर्य ! चित्तकी प्रसन्नता ही सबसे उत्तम सेवा है जी । द्रव्यसेवा, भावसेवा, आज्ञासेवा यों सेवा अनेक प्रकारसे होती है जी । सर्वोत्कृष्ट सेवा तो चित्त प्रसन्नता अर्थात् प्रभुभगवानमें चैतन्यवृत्ति परम हर्षसे एकत्वको प्राप्त हो वह है जी । इसमें सर्व साधन समाहित हैं ।"
1
'श्रीमद् राजचंद्र' द्वितीय आवृत्तिमेंसे बाँचना-विचारना करेंगेजी । “आत्मपरिणामसे जितना अन्य पदार्थका तादात्म्यअध्यास निवृत्त हो उसे श्री जिन 'त्याग' कहते हैं ।" सत्संग करेंगे जी । सत्पुरुषके पत्र भी सत्संग हैं, अतः उसका वाचन -चिंतन करें। इसमें सब कुछ समाया है जी । विचार कर्तव्य है जी ।
३६
नार, ता. ३०-६-१९१८
आपने पूछा है कि 'तत्त्वज्ञान' मेंसे क्या कण्ठस्थ करें ? इस विषयमें लिखना है कि ' आत्मसिद्धिशास्त्र' तत्त्वज्ञानमें है वह कण्ठस्थ करने योग्य है सो करें। दूसरा, आपको अवसर मिलनेपर निवृत्ति लेकर समागम करनेसे विशेष लाभ होगा । अतः अवसर निकालें । रातमें प्रार्थनाके समय बोले जानेवाले दोहे आपने मँगाये सो नीचे उतारकर भेजे हैं वे भी कण्ठस्थ करने योग्य हैं
Jain Education International
"अहो ! अहो ! श्री सद्गुरु, करुणासिंधु अपार; आ पामर पर प्रभु कर्यो, अहो ! अहो ! उपकार. १ शुं प्रभु चरण कने धरूं ? आत्माथी सौ हीन; ते तो प्रभुए आपियो, वर्तुं चरणाधीन. २ आ देहादि आजथी, वर्तो प्रभु आधीन; दास, दास हुं दास छं, आप प्रभुनो दीन. ३ षट् स्थानक समजावीने, भिन्न बताव्यो आप; म्यानथकी तरवारवत्, ए उपकार अमाप ४" “जिन शुद्धात्म निमित्तसे, पामीजे निजज्ञान; तिन संजीवन मूर्तिकूँ, मानूँ गुरु जंगम मूर्ति मुख्य है, स्थावर गौण, स्वानुभवी सत्पुरुषके, वचन प्रवचन शासन रहे जिन-आणशुं, आज्ञाए वे 'वार; निजमत कल्पित जे कहे, ते न लहे भवपार. ७ भेखधारीको गुरु कहे, पुण्यवंतकूँ देव; धर्म कहे कुलरीतकूँ, ए मिथ्यामति टेव. ८ सहजात सद्गुरु कहे, निर्दूषण सत् देव; धर्म कहे आत्मस्वभावकूँ, ए सत् मतकी टेव. ९
For Private & Personal Use Only
भगवान. ५ प्रधान
जान. ६
www.jainelibrary.org