________________
उपदेशामृत
१९ जूनागढ़, अषाढ़ सुदी ५, बुध, १९७२ श्री प्रगट पुरुषोत्तमस्वरूप सहजानन्दी शुद्ध चैतन्यप्रभुको नमोनमः इस पत्रके साथ पद भेजे हैं। हो सके तो उन्हें कण्ठस्थ करियेगा।
तीर्थका स्थान, वन-उपवन, उद्यान, एकान्त ज्ञान-ध्यान एवं योगियोंके लिये वैराग्यके स्थान यहाँ उत्तम हैं। ऐसे निमित्तोंके कारण शांति है जी। उपाधि नहीं है, किंचित् भी प्रतिबंध यहाँ नहीं है।
"पहला पद
(राग-काफी) योगी एकिला रे! नहि जेने संग कोई शिष्य ते साचा रे! तेनी सोई नव जोई. योगी०१ (टेक) एकलो वास वसे जंगलमां, अखंड आठे जाम; भेगा थाय के सळगी ऊठे छे, वेंचq छे कशुं दाम? सिद्धांत ए जाणे रे, वसे जोगी सहु खोई. योगी०२ घूघरो एक हशे बांधेलो, अवाज तेनो नव थाय; दस-वीस जो मळी बेसे तो, घोंघाटथी मार खाय; सुख न शमणे रे! कर्यु-कार्यु नांखे धोई. योगी०३ ए सिद्धांत समजीने साचो, एकलो रहे योगीराज; कर्मयोगे वसतिमां वसवू, तोपण एकलो राजे राज; सुख सौ एके रे! झाझे मूआ छे रोई. योगी०४ परिचय ने धनसंग्रह नहि जो, तो एकलो रे'वाय; नहि तो वगर बोलावी वळगशे, अहींथी तहीं बलाय; बापु एकिला रे! शाणा सुखी होय. योगी०५
'दूसरा पद हां रे! दिलडं डोले नहि, रे! डोले नहि ।
बीजी वृत्ति अंतरनी ना खोले रे! दिलढुं० (टेक) ___ * अर्थ-अहो! धन्य हैं वे अकेले साधु जिनके पास किसी प्रकारका कोई संग नहीं है, और धन्य हैं वे सच्चे शिष्य जिन्हें अपनी बाह्य सुख-सुविधाकी कोई चिंता नहीं है ॥१॥ जंगलमें बाँस अखण्ड आठों प्रहर अकेला खड़ा है तो अच्छा है। यदि अनेक बाँस आपसमें इकट्ठे मिल गये तो सुलग उठते हैं। फिर उन्हें बाजारमें बाँटने या बेचने जायें तो क्या कुछ दाम मिलनेवाले हैं ? इस सिद्धांतको समझते हुए योगी सर्वस्वका त्याग कर अकेला रहता है ॥२॥ यदि पैरमें एक बूँघरू बँधा हो तो उसका शब्द नहीं होता, और यदि दस-बीस मिलाकर बाँध दिये जायें तो कोलाहल होता है और परस्पर मार खाते हैं। वहाँ शान्तिका काम नहीं। इसी दृष्टांतसे अनेकोंके संगसे योगीका किया-कराया त्याग-वैराग्य नष्ट हो जाता है, स्वप्नमें भी सुखशांतिकी प्राप्ति नहीं होती ॥३॥ इसी सत्य सिद्धांतको समझते हुए योगी अकेला रहता है। कदाचित् कर्मयोगसे वसतिमें रहना पड़े तो भी एकत्वका चिंतन करते हुए अकेला ही रहता है, क्योंकि संपूर्ण सुख एकत्व, अर्थात् एकाकी स्थितिमें ही है। अनेकोंका समागम दुःखका कारण है। रो-रोकर मरनेके समान है॥४॥ बहुतोंका परिचय और धनसंग्रह न हो तभी निश्चिन्त अकेला रहा जा सकता है, वरना जहाँ-तहाँसे नाना प्रकारके झंझट, आकुलताके कारण आ लगेंगे। चिंतक कविका कहना है कि, यह आत्मा अकेला है ऐसा माननेवाला समझदार जीव सुखी होता है॥५॥
__ + अर्थ-यहाँ साधककी मनोवृत्ति उल्लासपूर्वक कह रही है कि वह अब चलित नहीं होगी और गुरुकृपासे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org