________________
उपदेशामृत १“प्रीति अनंती परथकी, जे तोडे ते जोडे एह;
___ परम पुरुषथी रागता, एकत्वता दाखी गुण-गेह." ऐसा सद्गुरुदेवका भी कहना है उसे याद कर, पाँचवें सुमतिनाथका श्री आनंदघनजीकृत स्तवन कण्ठस्थ करके विचारणीय है एवं तदनुसार आचरणीय है।
**
भाद्रपद वदी ७, शनि, १९५८ यथातथ्य स्वरूपको प्राप्त उस पुरुषकी श्रद्धा, सन्मुख दृष्टि, उस सद्गुरुकी आज्ञाको त्रिकरणयोगसे साधते हुए, प्रतिसमय जो उस धर्ममें परिणमन कर रहे हैं उन्हें नमस्कार हो! नमस्कार हो!
दूसरा कुछ मत खोज । एक सत्पुरुषके प्रति एकनिष्ठतासे, उनके वियोगमें भी सर्व योग अर्पण कर जो आत्मजागृतिमें अखण्ड रहे हैं, उनकी आज्ञासे यथार्थ स्वरूपको जाना है, श्रद्धा की है, अनुभव किया है, अनुभव करते हैं, जो त्रिकालमें वही है उस यथातथ्य स्वरूपको जाननेवालेकी प्रतीति कर्तव्य है। जिसने उस स्वरूपको नहीं जाना है उसे, देवाधिदेव परमकृपालुदेवने जिस आत्मस्वरूपको जाना है, उसी स्वरूपकी भावनासे, सच्चे आत्मभावसे वही मुझे हो, वही मुझे मान्य है, ऐसा विचार कर 'सहजात्मस्वरूप परमगुरु' के प्रति ध्यान क्षण क्षण स्मृतिमें रखनेकी भावनासे रहना योग्य है जी। ___ ज्ञानीपुरुष उदयमें आये हुए कर्मोंको समभावसे सहन करते हैं। नरकादिककी अनन्त वेदना उदयमें आनेपर जीवने भोगी है। साता-असाता दोनोंका अनुभव सत्पुरुषके बोधसे विचारने योग्य है। कुछ भी विकल्प करने जैसा नहीं है, मात्र एक स्मरण कर्तव्य है। द्रष्टा रहकर प्रवृत्ति करनी चाहिए। जो दिखायी दे रहा है वह तो जानेवाला है, ऐसा विचारकर जूठाभाईको लिखा गया जो पत्र है, जिसमें मैं तुम्हारे समीप ही हूँ यों समझकर जागृतिमें रहनेका अनुरोध ज्ञानीपुरुषने किया है वह पत्र, एवं
"भीसण नरयगइए, तिरियगइए कुदेवमणुयगइए ।
पत्तोसि तिव्व दुक्खं, भावहि जिणभावणा जीव ॥" पूज्य वनमालीभाईके नाम लिखा पत्र है उसे विचारियेगा।
नाना कुंभनाथ, नडियाद
अषाढ़ सुदी ६, १९७०
तत् ॐ सत् शरीर-प्रकृति दिन-प्रतिदिन अपना धर्म निभा रही है। उसमें अन्तर्वृत्ति तो असंग रहनेके विचारवाली है। और फिर, जैसे जनसमूहका परिचय कम हो वैसे ठीक रहता है। उपाधि अच्छी
१. पर पदार्थों की अनन्त प्रीतिको जो तोड़ता है वही (उस अनन्त प्रीतिको) आत्मामें जोड़ता है और वही जीव परम पुरुषके गुण-गेह (गुणोंके घर) में एकत्व कर उनमें अनुराग-परम प्रेम करता है।
* पत्रांक ९१३ 'श्रीमद् राजचंद्र' ग्रंथ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org