________________
[५३] पढ़ायी जाती जिसमें दिनका अधिकांश समय बीतता। दोपहरमें एक बार सभी आहार करते । पूरा दिन पूजा-भक्तिमें व्यतीत होता।
शामको आवश्यक क्रिया होनेके बाद श्री लल्लजी आदि भक्तमण्डल, कोई पद बोलते हुए या एक दो पंक्तिकी धुन लगाते हुए अथवा मंत्रकी धुनके साथ समुद्रके किनारे जाता। वहाँ श्री लल्लजी हाथमें पीछी और कमरपर मात्र लंगोटी धारण कर "दृष्टि थिरामांहे दर्शन नित्ये रत्नप्रभासम जाणो रे...ए गुण राजतणो न विसारूं वहाला, संभारु दिनरात रे" आदि अनेक पद बदल-बदलकर उल्लासभावसे दौड़ते-कूदते, पहाड़ी रागमें गाते-गाते उस समुद्रकी रेतीमें सारी रात बिता देते। कुछ लोग घण्टे-दो घण्टे भक्ति करनेके बाद थक जाते, कुछ वापस अपने घर चले जाते, कुछ वहीं रेतमें सो जाते । प्रातः सब शहरकी ओर आते तब त्रिभोवनभाई आदि भक्तात्मा दूध, पानीके देग तैयार रखकर मार्गमें बैठे होते । उस भक्त मण्डलीमेंसे जिसे जितनी रुचि हो उतना उपयोग करते । वहाँसे वडवा आकर नित्यकर्मसे निवृत्त हो फिर सभी पूजाभक्तिमें लग जाते । दिनमें भी नींद लेनेका समय न मिलता। यों अखण्ड १९ दिनतक आँख मीचे बिना श्री लल्लजी स्वामीने रात-दिन भक्तिमें बिताये। इस भक्तिके अपूर्व वेगके उदयसे अनेक आत्माओंमें भक्तिरंग दृढ़ हुआ।
भाई रणछोड़भाई, श्री लल्लुजी स्वामीके साथ ही रातदिन रहते, इससे उन्हें भक्तिका ऐसा तो रंग चढ़ा कि वे अपने व्यापार तथा कुटुम्बादि भावोंको भूल गये । व्यापारके लिए जानेपर भी उस अपूर्व भक्तिका ही गुंजारव उनके चित्तमें होता, उसीकी झंकारसे उनका हृदय झंकृत होता रहता। उन्होंने तो निश्चय किया था उसके अनुसार श्री लल्लुजी स्वामीको ‘नहीं जाना है' ऐसा कहकर जाना टाल देते थे। परंतु 'अवसर देखना चाहिए, स्याद्वाद मार्ग है, फिर आर्त्तध्यान हो वैसी प्रवृत्ति करना योग्य नहीं है' आदि उपदेश वचन सुनकर खिन्नभावसे वे नार गये, किन्तु उनका चित्त व्यवहारमें लगता ही नहीं था।
श्री लल्लजी स्वामी सं.१९६८में चरोतरमें ही विहार करते रहे और ग्यारह वर्षके बाद वापस वसोमें तीसरा चातुर्मास किया। श्री मोहनलालजी तथा श्री चतुरलालजी भी उनके साथ ही थे।
इस चातुर्मासमें श्री रत्नराजने श्री लल्लजी स्वामीको वसो पत्र लिखा था वह अनेक दृष्टिसे विचारणीय होनेसे नीचे उद्धृत करता हूँ
___ तत् ॐ सत् श्री सहजात्मस्वरूप-प्रगट पुरुषोत्तमाय नमः
दोहा लह्यो लक्ष जिनमार्गको, लूखा तिनका भाव । धन्य जीवन तिनका सदा, स्वानुभव प्रस्ताव ॥१॥ मिथ्या माने जगतसुख, जीते जग अपमान । राजमार्गरत रातदिन, सो सत्पुरुष समान ॥२॥ ऐसा श्री लघुराजजी, तिन सत् करत निहोर । रत्न नाम कंकर समो, सब सज्जनको चोर ॥३।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org