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[५९] वर्तमान यों कालभेदसे ज्ञानी संतपुरुषोंमें भेदकी कल्पना भले ही की जाय, परंतु वास्तवमें तो सत्पुरुष एक स्वरूप ही हैं..."
श्री लघुराज स्वामी चकलासीसे, रत्नराजको हुए उपसर्गके प्रसंगपर आश्वासनपत्रमें लिखते हैं कि "अभी यहाँ उमरेठसे विहार कर पणसोरा होकर वणसोल आये। वहाँसे चकलासी...पाँच-छह दिनसे स्थिति है...आप परिषह-उपसर्ग जो सहन करते हैं उसके लिए धन्यवादके पात्र हैं। आपको तो सहज कर्म क्षय हों ऐसे जीवोंका कारण प्राप्त हुआ है...धैर्यसे गुरुप्रतापसे सर्व समाधि होगी।"
उस वर्षके श्री रत्नराजके कुछ पत्रोंकी लिखावटसे, श्री लघुराज स्वामी आदिकी कैसी विकट परिस्थिति थी इसे समझनेके लिए नीचे कुछ आवश्यक अवतरण संक्षेपमें दिये हैं।
श्री रणछोड़भाईको वे लिखते हैं, "आप बंधुको भी प्रसंग मिलनेसे, प्रतिबोधके रूपमें नहीं परंतु प्रेम-प्रीतिभावके रूपमें बता रहे हैं, उसपर विशेष ध्यान देकर पहलेसे ही सावधान होते हुए, प्रत्यक्ष सत्पुरुषकी आज्ञा-आराधनरूप महान कार्य कर्तव्य है। आप भाई स्वयं व्यवहारकुशल एवं विचक्षण हैं, परंतु आपकी जाति सरलस्वभावी है अतः ऐसे कठिनाईके समयमें सावधान रहकर मनको दृढ़ रखें, क्योंकि कथित मुमुक्षुओंका विशेषकर, बिना लिये ही माप निकल आया है अतः हमें जो उचित लगे वह करना है...भाई, अभी तो महाप्रभुको सँभालनेका आपका सद्भाग्य है।"
सं.१९७१, पौष सुदी ७ फिर भी श्री रत्नराजको धीरज नहीं रहनेसे विहार करके डीसासे आते हुए पानसर तीर्थक पास पाँवमें दर्द होनेसे वहीं रुक जाना पड़ा । उनका स्वास्थ्य भी बहुत शिथिल रहता था। पानसरसे पौष वदी १३के पत्रमें भक्तिभावपूर्वक लिखते हैं," साक्षात् प्रत्यक्ष सजीवनमूर्ति सद्गुरु भगवान श्री परमकृपालु महर्षिदेव स्वामीजी महाप्रभु श्री लघुराज स्वामीश्रीके पवित्र चरणकमलोंमें विधिवत् साष्टांग दण्डवत् नमस्कार हो! नमस्कार हो!!
...हमें तो आप सत्पुरुषके दर्शन-समागमकी सदइच्छाके अतिरिक्त अन्य कोई भी कार्य कल्याणकारी नहीं लगता। 'जहाँ राम वहाँ अयोध्या'...जहाँ आप बिराजित हों वहाँ हमारे लिए तो चौथा काल ही है। यद्यपि मनकी धारणा निवृत्तिक्षेत्रमें अज्ञातरूपसे विचरनेकी थी-है, परंतु एक तो आप वृद्ध रत्नाधिक प्रत्यक्ष उपकारी सत्पुरुषके दिव्य दर्शनका लाभ तथा हमारे युगप्रतिक्रमणका अवसर भी आसन्न ही है वह यदि प्रतिभाशाली महान् पुरुषके चरणमूलमें हो सके तो विशेष अच्छा...आपश्रीके चरणोंमें शीघ्र उपस्थित होऊँगा, परंतु शरीरसे विवश हूँ अतः यदि विलम्ब जैसा हो जाय तो चिंता न कीजियेगा। हमारा इस ओर आना गुप्त ही रखा जाय तो अच्छा रहेगा...मात्र आश्रित जीवात्माओंको हमारे निमित्तसे अन्याय होता जानकर उनकी यत्ना करनेकी सहज वृत्ति हो जाया करती है।"
अडालजसे श्री रत्नराज एक पत्रमें स्वामीजीको लिखते हैं
"आपकी सेवामें उपस्थित हो जाऊँगा जी, तब सर्व समाचार विस्तारसे सविनय प्रगट करूँगा जी...किसीका विश्वास करनेका समय नहीं रहा..." सं.१९७१, माघ सुदी ६
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