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श्री रत्नराज स्वास्थ्य ठीक होनेपर नडियाद आकर कुछ दिनोंमें ही वहाँसे चले गये थे, क्योंकि उनकी अज्ञात विहार करनेकी भावना थी । वे भरुचसे वैशाख वदी ३० के पत्रमें लिखते हैं, " आपश्रीको किसी भी प्रकारसे परिषह - उपसर्ग उत्पन्न न हो इस संबंध में चित्तमें विचार आ जाते हैं कि अरेरे! यह क्या कलियुगका प्रभाव है कि ऐसी वृद्धावस्थामें वैयावृत्य करना तो दूर रहा, परंतु उल्टी असातना, उपसर्ग उत्पन्न कर सताना चाहते हैं ! वाह ! इसीको मुमुक्षुता कहते हैं ! प्रभो ! अब तो आपने मुमुक्षुओंकी मुमुक्षुताको पहचान लिया होगा या अब भी कुछ शेष रहता है ?..."
श्री रत्नराज वडोदरासे ज्येष्ठ सुदी ९ के पत्रमें लिखते हैं
" अभी चातुर्मासको शुरू होनेमें देर है । विमुखदृष्टिवाले वहाँसे निकलवानेके लिए कमर कसकर खड़े हैं। अतः प्रभु! संयोगोंको जाँचकर कार्य करना योग्य है, क्योंकि 'दुष्ट करे नहिं कौन बुराई ?'... मैंने बारबार आपकी सेवामें उपस्थित होनेकी विनती की है। वैसे मेरी विशेष इच्छा तो अज्ञात रहनेकी है, फिर भी संयोगोंमें परिवर्तन हो तब मनुष्यको भी बदलना चाहिए... यदि हम अनुपस्थित हैं वैसे वैसे रहें, और इतनेमें कोई असम्भव अघटित घटना हो जाय तो हमारी निवृत्तिकी भावना निर्मूल हो जाय ।"
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श्री रत्नराज मुनिश्री चतुरलालजीको लिखते हैं, . आप सत्य कसौटीकी घड़ीमें परम प्रभुश्री चरणमूलमें रहे हैं, सेवाकर जन्म सफल कर रहे हैं... हमारी उपस्थितिकी आवश्यकता हो तो बिना हिचकके तुरत लीखियेगा ... यथाशीघ्र उपस्थित हो जाऊँगा । घबरायें नहीं कि मुझे ठीक लगेगा या नहीं...हे मुनि! सुखपूर्वक समाधिकी बात होती तो मुझे सूचित करनेकी आवश्यकता नहीं थी, किन्तु यह अवसर सुननेके अनुसार ऐसा आ पड़ा है कि मेरे अंतरंगमें यही हो रहा है कि है प्रभु ! सहाय करना ! हे परमकृपालु ! कृपा करना ! भरुचमें रहनेकी इच्छा थी । फिर भी... वार्तालाप...सुनकर मेरा चित्त उठ गया । उन्होंने बहुत मनुहार की, पर हम तो एकाएक चल पड़े... भरुचसे पाँच दिनमें ऐसी शरीरस्थिति और भयंकर गर्मीमें यहाँ ( वडोदरा ) आया हूँ । अब तो मात्र आपके अभिप्रायकी प्रतीक्षा है ।"
सं. १९७१के श्रावण मासमें लिखते हैं, “जिन मनुष्योंका मीठा बोलनेका स्वभाव होता है उनके वचनप्रयोगकी खूबीसे तो सचमुच सावधान रहने जैसा है पर उसमें भी यदि दत्तवाचकता द्वारा विश्वासके तत्त्व हों तो उसका विचार तो आपश्री जैसे क्षमाशूर सत्पुरुष ही कर सकते हैं... असंगत्व ही अनुकूल है ।"
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भाद्रपद वदीके अन्य पत्रमें लिखते हैं, ..लोगोंकी भावनाको उत्तेजित करके विपरीत वेग धारण करे ऐसा कार्य वे लोग कर रहे हैं, वह यह कि स्वामीजी तो भोले स्वभावके हैं। उन्हें रत्नराजने बहकाकर बदल दिया है, इत्यादि... ऐसे दोष हमपर मँढे गये हैं, इसमें उनका गहरा आशय ऐसा लगता है कि 'रत्नराजने स्वामीजीको बिगाड़ा है' ऐसा कहनेसे, हमारी पित्तकी प्रकृति है जिससे मिथ्या आरोपको सहन नहीं कर सकनेसे हम स्वामीजीसे विमुख हो जायेंगे कि 'लो यह तुम्हारे स्वामीजी, हम उनके पास नहीं जायेंगे, और नहीं रहेंगे।' इस प्रकारसे हमें अलग करना...।”
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