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[७६] कृतार्थ हो जाय। प्रभुश्रीजीने 'मूलमार्ग'का गूढ़ रहस्य उन्हें समझाया, और 'टाळी स्वच्छंद ने प्रतिबंध'का अर्थ उनसे पूछा, फिर स्वयं स्पष्ट समझाया; एवं अपूर्व वात्सल्यसे उन्हें मंत्रदीक्षा दी। उनके जानेके बाद प्रभुश्रीजीने अपनी सेवामें रहनेवाले एक भाईको कहा कि 'ऐसा स्मरणमंत्र आज तक हमने किसीको भी नहीं दिया।' कृष्ण चतुर्दशी जैसे सिद्धियोगके दिन ऐसे महापुरुषके हाथों मंत्रदीक्षा मिले यह कैसी अपूर्व घटना!
ज्ञानीपुरुषोंकी प्रेरणाशक्ति अति गहनरूपसे काम करती है। उनकी वाणी ऐसी प्रबल होती है कि वह सत्पात्र व्यक्तिके जीवनको एकाध शब्ध या वाक्यसे बदल देती है। तदनुसार श्री ब्रह्मचारीजीको ‘टाळी स्वच्छंद ने प्रतिबंध के विषयमें प्रभुश्रीने जो उपदेश दिया था उसकी उनपर ऐसी छाप पड़ी कि तभीसे उनमें स्वजन आदिके प्रतिबंधको टालकर प्रभुश्रीजीकी सेवामें रहकर उनकी आज्ञामें जीवन बितानेकी तीव्र भावना जाग्रत हो गयी। इस विषयमें उन्होंने अपने बड़े भाईको जो पत्र लिखा है उसमें आज्ञाकी कैसी तीव्र पिपासा जागृत हुई थी और प्रतिबंधको हटानेकी कैसी अदम्य इच्छा उनके अंतरंगमें विद्यमान थी वह निम्न अवतरणोंपरसे स्पष्ट होता है___"मैं...परमार्थकी शोधमें और उसे प्राप्त करनेके प्रयत्नमें जीता हूँ। उसके लिए सर्वस्व अर्पण करके भी संपूर्ण उन्नतिकी साधना हो सके तो तैयार रहनेके लिए मेरा चित्त तड़प रहा है...कुटुंबको सदाके लिए छोड़कर पूरे संसारको कुटुंब मानकर अपने प्रारब्ध पर भरोसा रखकर इस भवके शेष वर्षोंको परमकृपालुदेवके चरणकमलमें अर्पण करनेको तत्पर हुआ हूँ...संसार छोड़कर आश्रममें रहनेकी आज्ञा न मिले तो मुझे कुछ कथित साधु बनकर नहीं घूमना है। पर उस योग्यताको प्राप्त करनेके लिए जो-जो उपाय दीर्घदृष्टिसे बतायें वे मुझे मान्य होनेसे, पहले मैं अन्य जिम्मेवारियोंसे मुक्त होकर, स्वच्छ होकर फिर उनसे (प्रभुश्रीसे) बात करनेकी सोचता हूँ।...चाहे मुझे काशी जाकर शास्त्राभ्यास करनेकी आज्ञा मिले या आश्रममें झाडू लगाने या घण्टा बजाने जैसा हलका काम सौंपें तब भी मुझे तो पूर्ण संतोष होगा; क्योंकि मेरा कल्याण उस पुरुषके आज्ञापालनके लिए ही जीनेमें है...जो वर्ष बचे हैं वे मेरे आत्माकी कहो, आश्रमकी कहो या संसारकी कहो, पर जिसमें सबकी सच्ची सेवा निहित हो वैसी फर्ज अदा करनेके लिए मैं घरबार छोड़कर अणगार बनना चाहता हूँ...संत, महंत या गद्दीपति बननेकी गंध भी मेरी इच्छामें नहीं है। किन्तु सबका सेवक और आत्मार्थी बननेकी इच्छा लम्बे समयसे निश्चित कर रखी है, वैसा बनना है।"
फिर अपने बड़े भाईकी सहमति मिलते ही वे प्रभुश्रीकी आज्ञा प्राप्त कर, उस सोसायटीसे मुक्त होकर सं.१९८१ में प्रभुश्रीकी सेवामें संलग्न हो गये। प्रभुश्रीने उन्हें ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कराया। प्रभुश्रीकी सेवामें निरंतर रहकर उनकी सन्निधिमें सूत्र-शास्त्रोंका अध्ययन, मनन और उनके बोधका ग्रहण, आज्ञाधीन व्यवहार आदि उनके श्वासोच्छ्वास बन गये। प्रभुश्रीकी सूचनाके अनुसार मुमुक्षुओंके पत्रोंके उत्तर, तथा नवीन मुमुक्षुओंको नित्यनियम एवं स्मरण आदि प्रभुश्रीकी आज्ञासे देते। तदुपरांत वार्तालाप और उपदेशकी नोंध करना, आवश्यक पुस्तकोंमेंसे टिप्पणी करना, अनुवाद, श्रीमद् राजचंद्र जीवनकला जैसी पुस्तकोंकी रचना इत्यादि प्रवृत्तियोंमें सतत उल्लास और निष्ठासे उन्होंने अविरत परिश्रमपूर्वक सेवाका आरंभ किया।
* स्वच्छन्द और प्रतिबंधको टालकर।
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