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[७५ ] होकर दोपहर लगभग एक बजे नरोडा आ पहुँचे। उनके दिव्य ज्ञानमें अभी और किसीका मरण सुधारना है ऐसा स्पष्ट दीख रहा था। इसलिये वे नरोडा आकर तुरत ही एक मुमुक्षुबहन जो मृत्युशय्या पर थी, उसके पास गये। उसे भी देह और आत्माकी भिन्नताके विषयमें अद्भुत बोध देकर समता, धैर्य, सहनशीलतापूर्वक शांत भावसे अंतरमग्न होनेके उत्साहमें प्रेरित कर अपूर्व जागृतिमें लाकर समाधिमरण सन्मुख कर स्वयं वहाँसे बाहर निकले। थोड़ी देर बाद उस बहनने देहत्याग कर दिया।
यों दोनों आत्माओंका मरण सुधारकर प्रभुश्री उस दिन नरोडामें रुके और दूसरे दिन अहमदाबाद पधारे। थोड़े दिन वहाँ रहकर चैत्र मासमें वे आश्रम पधारे।
सं.१९८१ का यह चातुर्मास और उसके बाद सं.१९९१ तकके प्रभुश्रीके सभी ग्यारह चातुर्मास आश्रममें ही हुए। इसके पहले सं. १९७७, ७८, ७९ के तीन, कुल मिलाकर आपश्रीके चौदह चातुर्मास आश्रममें हुए। ____ अब ज्यों-ज्यों प्रभुश्रीका आश्रममें अधिक रहना होता गया, त्यों त्यों उनके दर्शन, समागम, सद्बोधका लाभ अधिकाधिक प्राप्त करनेकी इच्छासे आनेवाले जिज्ञासुओंकी संख्या भी बढ़ती गयी। और हजारों मुमुक्षु उनके बोधसे प्रभावित होकर श्रीमद्जीके बोधवचनोंमें रस लेनेवाले श्रीमद्जीके अनुयायी बने। प्रभुश्रीके ज्वलंत बोधके प्रतापसे उनमें अपूर्व उत्साह आया और सनातन सद्धर्मभावना जागृत हुई।
महापुरुषके जीवनकी, महानदकी भाँति ऐसी तो विशालता और भव्यता होती है कि उसमें अनेक पुण्यात्माओंकी जीवनसरिता ओतप्रोत होकर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की विशाल भावना, तथा आत्मस्थ द्रष्टाभावका गाम्भीर्य और सामर्थ्य प्राप्तकर विशाल जनसमुदायके आत्मोन्नतिकारक बनकर महासागरके समान परमात्मपदमें आत्मविलीनता करके कृतार्थ होते हैं। ऐसा योग और ऐसा प्रसंग प्राप्त होना एक विरल घटना है। सं.१९७७ की कृष्ण चतुर्दशीको बांधणी गाँवके श्री गोवर्धनदास कालीदास पटेल (श्री ब्रह्मचारीजी) के जीवनमें भी एक ऐसी मंगल घटना घटित हुई।
ग्रेज्युएट होनेके बाद लगभग दस वर्षसे वे चरोतर एज्युकेशन सोसायटीमें स्वयंसेवकके रूपमें जुड़कर आणंदके दा.न.विनयमंदिरके आचार्यपद तक पहुँचे। परंतु उनका जीवन आत्मलक्षी होनेसे उन्हें अपने आचरणको आदर्शरूप बनानेकी तीव्र भावना जागृत हुई और जब तक वह सिद्ध न हो तब तक आचार्य माना जाना उन्हें आत्मवंचना जैसा लगा, जिससे उन्हें आचार्यपद खूब खटकने लगा। दीवालीकी छुट्टियोंमें वे अपने गाँव बांधणी आये थे। वहाँ उनके स्नेही श्री भगवानजीभाई द्वारा उन्हें परमकृपालुदेव तथा प्रभुश्रीके संबंधमें जानकारी मिली, अतः अगास आश्रममें आनेकी उत्कण्ठा जागृत हुई। कृष्ण चतुर्दशीको सबेरे जल्दी वे दोनों आश्रममें आये। तब प्रभुश्री खिरनीके वृक्षके नीचे बिराजित थे और 'मूलमार्ग'का पद बोला जा रहा था। प्रभुश्रीके दर्शनसे ही उन्हें अपूर्व अंतरशांति प्राप्त हुई और स्वाभाविक भावना उठी कि ऐसे पुरुषकी सेवामें रहा जाय तो जीवन
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