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[ ५७ ] समय वॉर लोनमें जो रकम रोकी थी उसके ब्याजके पैसे नडियादमें आपके पास भेजे थे, क्योंकि मुसलमान ब्याजको हराम मानते हैं और ब्याजके पैसोंका उपयोग स्वयं नहीं करते। आपने उसे अस्वीकार किया सो बहुत ही अच्छा किया।" श्री स्वामीजीको इसका कुछ ध्यान नहीं था, किन्तु एक अच्छाईमें सब अच्छाइयाँ समायी रहती हैं त्यों सब अच्छा ही होता।
उनका मुख्य हेतु यह था कि 'किसीके पुरुषार्थसे जो रकम मिली हो उसे लेना दीनता दिखाने जैसा और पराधीनता स्वीकार करने जैसा होनेसे वह अयोग्य ही है । पापके उदयके बाद पुण्यका उदय, धूपके बाद छायाके समान आता ही है । जो भाग्यमें होगा वह तो पीछे-पीछे खिंचा चला आयेगा । उस ओर दृष्टि करना भी उचित नहीं है ।' स्वयं विनयपूर्वक श्री रत्नराजको वह रकम सौंपकर साथमें पत्र भी लिखा था । इससे श्री रत्नराजको भी संतोष हुआ था और अच्छा लगा था ।
सं. १९७० के आषाढ़ सुदी ६ के पत्रमें श्री लघुराज स्वामी लघुतापूर्वक श्री रत्नराजसे विनती करते हैं- " आप दयालु हैं । इसलिए भव्य जीवोंको सन्मार्गकी ओर मोड़नेके लिए 'महागोप' के रूपमें परमार्थ धर्म प्राप्त हो वैसा करियेगा ।" उसके उत्तरमें श्री रत्नराज लिखते हैं- "हे प्रभु! आप स्वयं परमार्थस्वरूप ही हैं। आपश्रीकी स्थितप्रज्ञ दशा इस बालकने साक्षात् अनुभव की है । अतः आपको परमार्थरूप सन्मार्गकी ओर भव्यजीवोंको मोड़नेके वात्सल्यपूर्ण परिणाम रहते हैं, जिससे परम पुरुषार्थकी जागृतिके लिये जो प्रेरणा दें वह आज्ञा हमें शिरोधार्य है । परंतु हे योगेन्द्र सद्गुरुदेव ! तथारूप परमकृपालुदेव द्वारा उपदिष्ट परमार्थ मार्ग प्रकाशित करनेकी भी परम योग्यता चाहिए तो उसे प्रवर्तित करनेके लिए तो कितनी अधिक योग्यता चाहिये ?. .... अब तो जीवन्मुक्त होकर विचरते हुए प्रारब्धकर्मके क्षयपूर्वक स्वरूपस्थ होनेकी ही प्रतिज्ञा करना प्रशंसनीय है । "
श्री लल्लुजी स्वामीने सं. १९७०में 'नाना कुंभनाथ' का स्थान जो नडियादमें है, वहीं चातुर्मास किया । वहाँ मुमुक्षु भाई-बहन दर्शन, समागम और अभ्यासके लिए आते, उनकी व्यवस्थाके बारेमें श्री रत्नराजको लिखते हैं- "इस समय यहाँ सुबह, दोपहर 'भगवती आराधना' का वाचन शुरू किया है वह भाइयोंके वर्गमें होता है और बहनोंके वर्गमें 'भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति भाषान्तर कथांग' पढ़ा जाता है। श्री चतुरलालजीने बहनोंके वर्ग में 'आत्मसिद्धि शास्त्र' के वाचन आदिका क्रम रखा है.... परमकृपालुने इसे दुषमकाल कहा है उसका यथार्थ अनुभव हो रहा है, यह भी खेद जैसा है... अपना करके चले जाने जैसा है । "
कर्मकी गति विचित्र है। दुःखके प्रसंग भी एकके बाद एक आ पड़ते हैं । परमकृपालुदेव जैसे शिरच्छत्रका वियोग होनेके बाद श्री देवकरणजी जैसे आजन्म साथीका वियोग हुआ। फिर श्री अंबालालभाईका आधार था वह भी गया । जैसे-जैसे वृद्धावस्था बढ़ रही थी वैसे-वैसे शरीरबल भी क्षीण होता जा रहा था। साथ ही सारणगाँठका रोग, अर्शका रोग, शौचके समय आँत पीछे खिसक जानेसे प्रसूति जैसी पीड़ा प्रतिदिन होती थी उसमें वृद्धि होनेसे बाह्य चारित्र - पालनमें विघ्नपर विघ्न आते थे और असंगवृत्ति हो जानेसे कहीं मन नहीं लगता था, जिससे दूर पहाड़ों, जंगलों, एकान्तमें श्री चिदानन्दजीकी भाँति रूढिचुस्त जैनसमुदायसे दूर चले जानेकी वृत्ति थी। तभी गठिया रोगसे दोनों पाँव रह गये अतः नडियादमें स्थिरता की । वहाँ जैनोंका उपद्रव नहीं था पर जैनेतर लोग कल्याणके विशेष अभिलाषी होनेसे उपरोक्त प्रवृत्ति एक धर्मकार्य मानकर आरंभ की। वहाँ विघ्न
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