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श्राद्धविधि/३८
• श्लेष्म आदि को तुरन्त धूल आदि से ढकना चाहिए; अन्यथा उसमें असंख्य सम्मूछिम मनुष्यों की उत्पत्ति होने से उन सबकी विराधना का दोष लगता है। सम्भूछिम-जीवों के उत्पत्ति-स्थल
प्रज्ञापना-सूत्र के प्रथम पद में कहा है-“हे भगवन् ! सम्मूर्छिम मनुष्य कहाँ उत्पन्न होते हैं ?"
"हे गौतम ! पैंतालीस लाख योजनप्रमाण ढाई द्वीप रूप मनुष्यक्षेत्र की पन्द्रह कर्मभूमियों में और छप्पन अन्तर्वीपों में, गर्भज मनुष्य के मल में, पेशाब में, बलगम में, श्लेष्म में, वमन में, पित्त में, वीर्य में, वीर्य और रक्त के संयोग में, बाहर निकले वीर्य-पुद्गल में, निर्जीव कलेवर में, स्त्री-पुरुष के संयोग में, नगर की गटर में तथा सभी अशुचि स्थानों में सम्मूर्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं।
___"ये सम्मूछिम मनुष्य अंगुल के अंसख्यातवें भाग प्रमाण अवगाहना वाले, असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी, अपर्याप्त तथा अन्तमुहर्त आयुष्य वाले होते हैं।" टीका में ऐसा भी कहा गया है कि मनुष्य के संसर्ग से दूसरे भी अशुचि स्थान होते हैं, उनमें भी सम्मूर्छिम मनुष्य पैदा होते हैं।"
• दाँत साफ करने हों तो निर्दोष स्थान में प्रासुक, जाने हुए और कोमल दंतकाष्ठ से अथवा दाँत की दृढ़ता के लिए तर्जनी अंगुली से दाँत साफ करने चाहिए। दाँत के मैल पर भी धूल डाल देनी चाहिए।
'व्यवहार शास्त्र' में तो इस प्रकार कहा है--'दाँतों को मजबूत करने के लिए तर्जनी अंगुली से सर्वप्रथम मसूड़ों को मलना चाहिए। उसके बाद दाँत साफ करने चाहिए। अगर प्रथम कुल्ले में से एक बिन्दु गले में चला जाए तो शीघ्र ही उत्तम भोजन प्राप्त होता है।'
एक स्थान पर बैठकर, उत्तर अथवा पूर्व सम्मुख होकर दाँतों और मसूड़ों को पीड़ा नहीं करता हुआ स्वस्थ एवं तल्लीन होकर जो टेढ़ा नहीं हो, गाँठ बिना का हो, जिसका कूच अच्छा हो सके, सूक्ष्म अग्र वाले, दस अंगुल लम्बे, कनिष्ठा के जैसे मोटे, जाने हुए वृक्ष के, अच्छी भूमि में उत्पन्न ऐसे दातुन को कनिष्ठा एवं अनामिका के बीच में लेकर दाईं या बाईं दाढ़ा के तल को स्पर्श करते हुए मौनपूर्वक दांतों को रगड़ें। वह दातुन दुर्गंधित, पीला, सूखा हुआ, स्वादिष्ट, खट्टा, नमकीन नहीं होना चाहिए।
• व्यतिपात, रविवार, संक्रान्ति दिन, ग्रहण दिन, प्रतिपदा, कृष्णपक्ष की चतुर्दशी, अष्टमी, नवमी, पूर्णिमा और अमावस्या के दिन दातुन नहीं करना चाहिए।
• दातुन नहीं हो तो १२ कुल्लों से मुखशुद्धि करनी चाहिए। जीभ हर रोज खुरचनी चाहिए। जीभ को निर्लेखिनी से धीरे-धीरे खुरचने के बाद, दातुन को अच्छे स्थान पर साफ करके
आगे फेंकना चाहिए। शान्त दिशाओं में एवं अपने आगे अगर दातुन पड़े और वह खड़ा रहे तो सुखकारी है। इससे विपरीत पड़े तो दुःखदायी होता है। अगर एक क्षण के लिए खड़े रहकर नीचे गिरे तो शास्त्र के ज्ञाता 'उस दिन उस व्यक्ति को मिष्टान्न की प्राप्ति होती है' ऐसा बताते हैं।
• खांसी, श्वास, बुखार, अजीर्ण, शोक, प्यास, मुखपीड़ा, मस्तक, नेत्र, हृदय तथा कान की पीड़ा वाले रोगी को दातुन नहीं करना चाहिए ।