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श्रावक जीवन-दर्शन / ८३
अहो ! स्पृहा कैसे पूर्ण हो गयी !
राजा तथा प्रजा ने चारण मुनि को प्रासन प्रदान किया और बहुमानपूर्वक वंदन किया ।
तत्पश्चात् धन्य ने वह फूल मुनि के सामने रखा । चारण मुनि ने कहा- "मनुष्य में तरतम भाव से यदि कोई सर्वश्रेष्ठ है तो वह अरिहन्त परमात्मा ही है । वे ही त्रिलोक पूज्य हैं, अतः तीन जगत् में उत्तम अरिहन्त प्रभु के चरणों में ही यह कमल समर्पित करना उचित है । इसलोक प्रौर परलोक में मनोवांछित को देने वाली अरिहन्त की पूजा कोई नवीन ही कामधेनु है ।”
मुनि के ऐसे वचन सुनकर भद्र प्रकृति वाला धन्य जिनमन्दिर में गया और उसने प्रभु के मस्तक पर छत्र की भांति वह फूल चढ़ा दिया । प्रभु के मस्तक पर रहा वह फूल मुकुट की भाँति सुशोभित हुआ । इसे देखकर धन्य मन ही मन प्रत्यन्त खुश हुआ और शुभ भावना करने लगा ।
इसी बीच माली की चार कन्याएँ फूल बेचने के लिए वहाँ आईं। उन्होंने धन्य के द्वारा प्रभु के मस्तक पर रखे गये उस फूल को देखा । उन्होंने उसकी अनुमोदना की और मानों संपत्ति का बीज न हो, इस प्रकार एक-एक फूल सभी ने प्रभु की गोद में चढ़ाया ।
पुण्य कार्य, पाप कार्य, पाठ, दान, ग्रहण, भोजन, दूसरे को मान देने में, मन्दिर आदि के में जो प्रवृत्ति होती है, वह देखादेखी होती है ।
उसके बाद अपने आपको धन्य मानता हुआ वह धन्य चला गया तथा वे चार कन्याएँ भी अपने-अपने स्थान पर चली गईं। तब से धन्य संयोग मिलने पर जिनेश्वर को प्रतिदिन नमस्कार करने लगा ।
एक बार वह सोचने लगा- "रंक पशु की भाँति रात-दिन परतंत्र रहने के कारण प्रतिदिन प्रभु के दर्शन का भी नियम नहीं ले सकता हूँ, सचमुच मुझे धिक्कार है ।"
चारण मुनि का उपदेश सुनकर कृप राजा, चित्रमति मंत्री, वसुमित्र तथा सुमित्र ने गृहस्थ (श्रावक) धर्म को स्वीकार किया और क्रमशः वे सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुए ।
अरिहन्त की भक्ति के प्रभाव से धन्य भी सौधर्म देवलोक में महद्धिक देव बना । वे चारों कन्याएँ भी मरकर धन्य की मित्र देव बनीं। उसके बाद कृप राजा का जीव देवलोक से च्यवकर वैताढ्य पर्वत के गगनवल्लभ नगर में इन्द्र की भाँति चित्रगति नाम का विद्याधर राजा हुआ ।
मंत्री का जीव देवलोक से व्यवकर चित्रगति विद्याधर का पुत्र बना। वह माता-पिता का अत्यन्त ही प्रीति - पात्र था । पिता से भी अधिक तेजस्वी उस पुत्र का नाम विचित्रगति रखा गया । क्रमशः वह यौवन को प्राप्त हुआ। एक बार राज्य के लोभ से उसने अपने पिता की हत्या का षड्यंत्र रचा ।
वास्तव में, लोभ में अन्ध बने पुत्र को भी धिक्कार हो ।
दैवयोग से गोत्रदेवी ने राजा को वह सारा षड्यंत्र बता दिया । अचानक आये इस भयंकर भय से राजा को वैराग्य पैदा हो गया । वह सोचने लगा, – “अहो ! क्या करू ? कहाँ जाऊँ ?