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श्रावक जीवन-दर्शन / ३१७ भयंकर सर्प हुआा । उस दुष्टात्मा ने वन में आये मंत्री को डसा जिससे उसकी मृत्यु हो गयी । सर्प मरकर पहली नरक में गया और नरक में से निकलकर विराग राजा का यह पुत्र हुआ है। मंत्री मरकर विमलाचल तीर्थ की बावड़ी में हंस का बच्चा हुआ । तीर्थ को देखकर उसे जातिस्मरण ज्ञान हा । "अच्छी तरह से स्वामी की आराधना नहीं करने के कारण मैं तिर्यंचगति को प्राप्त हुआ हूँ" इस प्रकार विचारकर उसने चोंच में फूल लाकर जिनेश्वर की पूजा की । अपने पंखों में जल भरकर उसने मूलनायक प्रभु का अभिषेक किया । इस प्रकार की आराधना करके मरकर वह सौधर्म देवलोक में देव बना । वहाँ से च्यवकर पुण्य से मृगध्वज राजा का पुत्र हंसराज हुआ है । इस प्रकार मुनि के वचन सुनकर जातिस्मरण की तरह पूर्वभव में हुए वैर का स्मरण कर 'मैं हंस को मारूंगा।' इस प्रकार बोलता हुआ अहंकार से मैं यहाँ आया हूँ । उस समय पिता ने मुझे रोका, फिर भी मैं नहीं रुका और यहाँ श्रा गया तथा तुम्हारे पुत्र ने युद्ध में मुझे जीत लिया ।" भाग्ययोग से प्राप्त इसी वैराग्य से अब मैं श्रीदत्त स्वामी के पास दीक्षा अंगीकार करूंगा । इस प्रकार कह कर गाढ़ अन्धकार में सूर्य समान वह सूर अपने स्थान में चला गया और शीघ्र ही उसने दीक्षा ले ली । धर्मकार्य में जल्दबाजी ही प्रशंसनीय है ।
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"जो व्यक्ति जिस वस्तु पर श्रासक्त है, उस वस्तु में अन्य को आसक्त देखकर बहुत ही उत्सुक हो जाता है ।" इस प्रकार राजा भी दीक्षा लेने के लिए उत्सुक हो गया और सोचने लगा"अभी तक मेरे मन में वैराग्य का रंग क्यों उत्पन्न नहीं हो रहा है ? अथवा ज्ञानबली केवली भगवन्त ने उस समय कहा था कि जब तुम चन्द्रवती के पुत्र को देखोगे तब योग्यता के वश से तुम्हें सम्यग् वैराग्य उत्पन्न होगा ।" "वंध्या की तरह अभी तक उसके कोई पुत्र नहीं हुआ है तो फिर क्या करू ?" इस प्रकार जब एकान्त में रहकर राजा विचार करता था, तभी तारुण्य पुण्य से सुशोभित कोई पुरुष वहाँ आया और उसने राजा को नमस्कार किया । राजा ने पूछा --- "तुम कौन हो ?" इससे पहले कि वह जवाब देता, तभी आकाश में देववाणी हुई- "यही चन्द्रवती का पुत्र है। यदि तुझे सन्देह हो तो यहाँ से पाँच योजन दूर ईशान दिशा में दो पर्वतों के बीच कदलीवन है, वहाँ पर ज्ञानयोगिनी यशोमती नामकी योगिनी है । उसे पूछने पर वह सब वृत्तान्त कहेगी ।" यह सुनकर राजा को बड़ा प्राश्चर्य हुआ और वह शीघ्र ही उसी पुरुष के साथ ईशान दिशा में चला गया । वहाँ उसने योगिनी को देखा । योगिनी ने भी प्रीतिपूर्वक उसे कहा - "हे राजन् ! जो वचन तुमने सुना है, वह सत्य ही है। इस संसार रूपी गहन जंगल का मार्ग कोई विषम ही है, जहाँ तुम्हारे जैसे तत्त्वज्ञ पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। मैं उसका आमूलचूल वृत्तान्त कहती हूँ, उसे तुम सुनो।"
(८) पूर्वजन्म सम्बन्ध
चन्द्रपुरी नगरी में चन्द्र के समान उज्ज्वल यश वाला सोमचन्द्र नाम का राजा था और उसके भानुमती नाम की पत्नी थी । हैमवन्त क्षेत्र से एक युगल सौधर्म देवलोक के सुखों को भोगकर उसकी कुक्षि में अवतरित हुआ । ज्ञातिजनों को आनन्द देने वाले उन पुत्र व पुत्री का जन्म होने पर वे चन्द्रशेखर व चन्द्रवती के नाम से प्रसिद्ध हुए। शरीर व लक्ष्मी से मानों स्पर्द्धा नहीं कर रहे हों, इस प्रकार वे दोनों क्रमशः एक साथ बढ़ने लगे । युवावस्था पाने पर उन्हें अपने पूर्वभव का स्मरण हुआ । तब पिता ने आदरपूर्वक चन्द्रवती तुम्हें प्रदान की और चन्द्रशेखर के साथ यशोमती का विवाह हुआ ।