Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

View full book text
Previous | Next

Page 373
________________ बाढविषि/३५६ कामदेव ने शंकर का वध किया, उसी प्रकार इसका वध कर डालू ! अथवा गेंद की भाँति इसे माकाश में उछाल दूं। अथवा इसे उठाकर स्वयम्भूरमण समुद्र में डाल दूं। अथवा सोये हुए इसको अजगर की भाँति निगल लू। अथवा यहां आये हुए को सोते हुए ही कैसे मारू ? घर पर पाये हुए तो शत्रु का भी सम्मान ही करना चाहिए। कहा भी है ____ "बुद्धिमान् व्यक्ति अपने घर आये शत्रु का भी गौरव ही करते हैं। शुक्र गुरु का शत्रु है, और मीन राशि गुरु का स्वगृह है, फिर भी शुक्र जब मीन राशि में आता है तब गुरु उसे उच्च स्थान ही देता है।" अतः यह जब तक जगे तब तक अपने भूत समुदाय को बुला लू और उसके बाद जो उचित लगेगा, वह करूंगा। इस प्रकार विचार कर वह वहाँ गया और सैनिकों से युक्त राजा की भाँति वह भूतों के साथ वहाँ आ गया। कन्या के विवाह के बाद निश्चिन्त होकर सोने वाले पिता की भांति उसे निश्चिन्त होकर सोया देखकर वह राक्षस तिरस्कार करते हुए बोला"अरे! मर्यादाहीन ! निर्लज्ज ! बुद्धिहीन ! निर्भय ! तू मेरे महल में से जल्दी निकल जा, अन्यथा मेरे साथ युद्ध कर।" उसके इन वचनों को तथा भूतों की किल-किल ध्वनि को सुनकर कुमार की निद्रा भंग हो गयी। वह बोला-“हे राक्षसेन्द्र ! भूखे व्यक्ति को भोजन में अन्तराय की भांति मुझ विदेशी की निद्रा में विघ्न क्यों करते हो?" "धर्म की निन्दा करने वाला, पंक्तिभेद करने वाला, अकारण निद्रा भंग करने वाला, कथा को भंग करने वाला तथा निष्कारण रसोई करने वाला, ये पाँच अत्यन्त पापी कहलाते हैं।" अत: ताजे घी के मिश्रण युक्त शीतल जल से मेरे पैरों के तल-भाग में मालिश कर, जिससे मुझे शीघ्र नींद आ जाय। राक्षस ने सोचा-"इसके अद्भुत चरित्र से इन्द्र का भी हृदय कम्पित हो जाय तो फिर साधारण मनुष्यों की तो क्या बात है? कितने आश्चर्य की बात है कि यह मेरे द्वारा पैरों के तलभाग की मालिश कराना चाहता है ? अहो ! सिंह की सवारी की भांति इसकी निर्भयता कितनी है ? अहो ! इसका साहस कितना है ? अहो ! इसका पराक्रम कितना है ? अहो ! इसकी धृष्टता कितनी है ? अहो! यह कितना निःशंक है ? अथवा ज्यादा सोचने से क्या फायदा? विश्व के उत्तम पुरुषों में अग्रणी समान इसका एक बार तो अतिथि-सत्कार करूं।" इस प्रकार विचार कर वह राक्षस घी सहित ठण्डे जल से उसके पैरों के तलभाग की मालिश करने लगा। जो बात कभी देखने-सुनने व कल्पना करने में नहीं आती, वह सत्पुरुषों को सहजता से प्राप्त हो जाती है। अहो ! पुण्य की बलिहारी न्यारी ही है। एक नौकर की भाँति बिना श्रम के पैरों के तलभाग की मालिश करते हुए उसे देखकर खुश हुमा रत्नसार उठा और बोला- "हे राक्षसराज! अज्ञानी मनुष्य ऐसे मेरे द्वारा जो कुछ भी अपराध हुमा हो उसे पाप क्षमा करें। हे राक्षस ! तुम्हारी भक्ति से मैं प्रसन्न हुआ हूँ, अतः कोई भी वरदान मांगो! तुम्हारे दुःसाध्य कार्य को भी मैं . शीघ्र सिद्ध कर दूंगा।" इस बात को सुनकर आश्चर्यचकित हुए उस राक्षस ने सोचा"अहो ! यह तो विपरीत बात हो गयी कि मनुष्य मुझ देव पर खुश हुआ है। अहो! यह मेरे दुःसाध्य कार्य को भी सिद्ध करना चाहता है ? अहो! हौज का जल कुए में प्रवेश करना चाहता है। अहो ! आज कल्पवृक्ष सेवा करने वाले से अपने मनोरथ पूर्ण करना चाहता है ? अहो ! माज

Loading...

Page Navigation
1 ... 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382