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श्राद्धविधि/३५८
फायदा, जिससे दोनों कान ही कट जायें। बुद्धिमान् पुरुष को कपूर का भक्षण तभी तक करना चाहिए, जितने से उसके दांत गिरने की सम्भावना न हो ।
समझदार पुरुष दाक्षिण्य, लज्जा तथा लोभ आदि को अपनी देह के समान बाह्य समझे और स्वीकार किये हुए व्रत को अपना जीवन समझे।
चक्र का मध्य भाग टूट जाये तो अरों से क्या ? राजा के नष्ट हो जाने पर सैनिकों से क्या फायदा ? मूल जल जाय तो शाखामों से क्या फायदा? पुण्य क्षीण होने पर औषधियों से क्या मतलब है ? चित शून्य हो तो शास्त्रों से क्या प्रयोजन है ? हाथ टूट जाने पर अस्त्रों से क्या फायदा ? अपना व्रत खंडित हो जाय तो दिव्य ऐश्वर्य और सुख से भी क्या मतलब ?
इस प्रकार विचार कर तेजस्वी वाणी वाले कुमार ने गौरवपूर्वक कहा-“हे राक्षस ! तुमने ठीक कहा है परन्तु पूर्व में मैंने गुरु के पास नियम स्वीकार किया। तब राज्य व्यापार पापमय होने से उसका परित्याग किया है। यम और नियम की विराधना करने पर तीव्र दुःखों का अनुभव करना पड़ता है, यम तो जीवन के अंत में ही दु:ख देता है, जबकि नियम तो जन्म से लेकर निरन्तर दुःखदायी है ! अतः हे पुण्यात्मा जिससे मेरे नियम का भंग न हो ऐसे दुःसाध्य कार्य का भी मुझे आदेश करो, ताकि मैं उसे सिद्ध कर सकू।"
क्रोध से राक्षस ने कहा-"अरे ! व्यर्थ ही क्यों बकवास करता है ? पहली प्रार्थना को तो व्यर्थ कर दिया और अब दूसरी प्रार्थना करता है। अरे पापी ! जिस राज्य के लिए युद्ध
आदि पाप करने पड़ें, उस राज्य को छोड़ना तो उचित है, परन्तु देव द्वारा दिये गये राज्य में पाप कैसे?"
___ "अरे मूढ़ ! विशाल राज्य देने पर भी तू आलस क्यों करता है ? सुगन्धित घी पीने पर भी छी: छीः करता है।"
"अरे मूढ़ ! मेरे महल में अभिमान से सुखपूर्वक सोते हो और मुझसे पैरों के तलभाग की मालिश कराते हो और अब मरने की इच्छा वाले तुम मेरी कही हुई बात को भी करना नहीं चाहते तो अब देखो मेरे क्रोध का कड़वा फल" गिद्धपक्षी जिस प्रकार मांस के टुकड़े को उठाकर उड़ता है, उसी प्रकार कुमार का अपहरण करके वह अाकाश में उड़ गया। क्रोध से भयंकर और कम्पित होठ वाले उस राक्षस ने शीघ्र ही उसे भयंकर समुद्र में डाल दिया और स्वयं को भव सागर में।
शीघ्र ही वह प्राकाश में से अपार समुद्र में जङ्गम मेरुपर्वत की तरह गिरा। कौतुक की भाँति पाताल में जाकर वह शीघ्र ही जल के ऊपर आ गया। वास्तव में, जल की यही स्थिति होतो है।
जड़मय (जलमय) सागर में यह अजड़ आत्म कैसे रह सकेगा? मानों यही विचार कर राक्षस ने अपने हाथों से उसको समुद्र से बाहर निकाल दिया और बोला, "अरे हठाग्रही और निर्विचार कुमार! तू व्यर्थ क्यों मरता है ? इस राज्यलक्ष्मी को क्यों नहीं लेता है ? रे निन्द्य ! मैं देव होने पर भी तेरे निन्द्य कार्य को करने के लिए तैयार हो गया और तू मनुष्य होने पर भी मेरे कहे हुए प्रशस्य कार्य को नहीं करता है। अरे ! तू मेरी बात शीघ्र स्वीकार कर ले अन्यथा धोबी