Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

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Page 378
________________ श्रावक जीवन-दर्शन/३६१ समरसिंह राजा भी अनेक श्रेष्ठियों के साथ उसकी अगवानी के लिए आया। वसुसार आदि बड़े श्रेष्ठियों के साथ भव्य महोत्सवपूर्वक राजा ने उसका नगरप्रवेश कराया। पुण्य की पटुता आश्चर्यकारी है। समस्त औचित्यव्यवहार पूर्ण हो जाने के बाद औचित्यपालन में चतुर उस पोपट ने राजा आदि के सामने कुमार का समस्त वृत्तान्त सुना दिया। कुमार के अद्भुत सत्त्व को सुनकर सभी आश्चर्य करने लगे और राजा आदि सभी लोग उसकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करने लगे। एक बार नगर के उद्यान में विद्यानन्द नामके प्राचार्य भगवन्त पधारे। रत्नसार तथा राजा आदि प्रसन्नतापूर्वक गुरुभगवन्त को वन्दन के लिए गले। योग्य देशना के बाद आश्चर्यचकित हुए राजा ने रत्नसार कुमार का पूर्वभव पूछा। चार ज्ञान के धारक प्राचार्य भगवन्त ने कहा ___ "हे राजन् ! राजपुर नगर में श्रीसार नामका राजपुत्र था। उसके श्रेष्ठिपुत्र, मंत्रिपुत्र व क्षत्रियपुत्र तीन मित्र थे। तीनों पुरुषार्थों से सुशोभित उत्साह की भाँति वह उन तीन मित्रों से शोभता था। क्षत्रियपुत्र अपने तीनों मित्रों की कलाओं में कुशलता देख अपनी जड़ता की निन्दा करता हुआ ज्ञान को अत्यधिक मान देता था। "एक बार रानी के महल में सेंध लगाने वाला एक चोर माल सहित पकड़ा गया। कुपित हुए राजा ने उसका वध करने का आदेश दे दिया। जल्लाद उसे वध के लिए ले जा रहे थे तब हरिण के समान त्रस्त दृष्टि वाले उसको दयालु कुमार ने देखा। यह मेरी माता के धन का चोर है, अतः इसे मैं स्वयं मारूंगा, इतना कहकर उन जल्लादों के पास से उस चोर को लेकर वह नगर के बाहर गया। अत्यन्त दयालु कुमार ने उसे चोरी नहीं करने की प्रेरणा कर गुप्त रीति से छोड़ दिया। अहो! अपराधी पर भी कितनी दया ! "सभी के पाँच मित्र तथा पाँच शत्रु होते ही हैं, अतः किसी ने जाकर चोर को छोड़ने की बात राजा को कह दी। राजा की आज्ञा का भंग शस्त्र बिना का वध है, अत: राजा ने श्रीसार की अत्यन्त भर्त्सना की, जिससे अत्यन्त दु:खी व कुपित कुमार नगर से बाहर निकल गया। मानी व्यक्ति को अपनी मानहानि मौत से भी अधिक बदतर लगती है। आत्मा का अनुसरण करने वाले ज्ञान, दर्शन व चारित्र की भाँति उसके तीन मित्र भी उसके साथ हो गये। कहा है-"सन्देश भेजने में नौकर की, आपत्ति आने पर बन्धु की, आपत्तिकाल में मित्र की व धनक्षय होने पर पत्नी की परीक्षा होती है।" सार्थ के साथ जाते हुए एक बार वे सार्थ से भ्रष्ट हो गये। भूख से पीड़ित तीन दिन तक इधर-उधर घूमते हुए किसी गाँव में पहुंचे और भोजन-सामग्री तैयार की। उसी समय कोई निकट मोक्षगामी जिनकल्पी मुनि उनसे भिक्षा लेने और उत्कृष्ट अभ्युदय देने के लिए वहाँ आ गये। भद्रक प्रकृति वाले राजपुत्र ने उल्लसित भाव से मुनि को दान दिया और भोग-फल कर्म उपार्जित किया। भिक्षादान से दो मित्रों को अत्यन्त हर्ष हुआ और उन्होंने मन, वचन व काया

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