Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

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Page 379
________________ श्राद्धविधि/३६२ से उसकी अनुमोदना की। अथवा समान वय वाले मित्रों के लिए समान सुकृत का अर्जन योग्य ही है। "सब दे दो, ऐसा योग पुनः कब मिलने वाला है ?" इस प्रकार अपनी अधिक श्रद्धा बताने के लिए मायापूर्वक वचन कहे । दान के समय तुच्छ क्षत्रियपुत्र ने कहा-“हे प्रभो! हम अत्यन्त भूखे हैं, अतः कुछ हमारे लिए रहने दो।" इस प्रकार दान के विघ्न से उस खराब बुद्धि वाले क्षत्रियपुत्र ने भोग में विघ्नकारी कर्म बाँधा। उसके बाद राजा ने उन्हें वापस बुला लिया और उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक अपना पद प्राप्त किया। राज्य, श्रेष्ठिपद, मंत्रीपद, व सेनापति पद को भोगकर मध्यम गुण वाले वे चारों मृत्यु को प्राप्त हुए। सत्पात्र में दान से उनमें से श्रीसार रत्नसार बना। माया के कारण श्रेष्ठी व मंत्रीपुत्र उसकी दो स्त्रियाँ बने। दान में विघ्न करने से क्षत्रियपुत्र तिर्यंच पोपट बना। पूर्व भव में ज्ञान के बहुमान के कारण उसे वैसी चतुराई मिली। श्रीसार ने जिस चोर को मुक्त किया था वह तापस व्रत से मरकर रत्नसार का सहायक चन्द्रचूड़ देव बना।" इस चरित्र को सुनकर राजा आदि पात्रदान में अत्यन्त प्रादर वाले बने और अहंदु धर्म की आराधना करने लगे। सम्यग्तत्त्व का अबबोध होने पर कौन आलस करता है ! अहो! महान् पुरुषों का धर्म सूर्य की भाँति अन्धकार को भेद कर अनेक जीवों को सन्मार्ग में जोड़ता है। महान् पुण्यशाली रत्नसार कुमार ने अपनी दो प्रियाओं के साथ दीर्घकाल तक अनुत्तर भोग भोगे। अपने भाग्य से प्राप्त लक्ष्मीवाला वह परस्पर बाधा पहुँचाए बिना काम व धर्म का सेवन करने लगा। रथयात्रा, तीर्थयात्रा, रजत, स्वर्ण व मणिमयी अरिहन्त की प्रतिमाएं, उनकी प्रतिष्ठा, जिनमन्दिर-निर्माण, चतुर्विध संघ-भक्ति व अन्य लोगों पर भी उपकार के बहुत से कार्य उसने किये। वास्तव में, लक्ष्मी का यही फल है। उसके संसर्ग से उसकी दोनों पत्नियां भी अच्छी तरह से धर्मनिष्ठ बनीं। सुसंसर्ग से क्या नहीं होता है ? पंडितमरण से आयुक्षय होने पर अपनी दोनों प्रियायों के साथ वह अच्युत देवलोक में उत्पन्न हुआ। श्रावक की यह उत्कृष्टगति है।

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