Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

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Page 374
________________ थावक जीवन-दर्शन/३५७ सूर्य भी प्रकाश के लिए अन्य की प्रार्थना करने लगा। मुझ देवता को देने वाला यह कौन मनुष्य है ? मेरे जैसा देव इस मनुष्य के पास क्या है? मेरे गा देव दस मनाय के पास क्या प्रार्थना करे ?....फिर भी 'कछ मांगगा' इस प्रकार मन में विचार कर वह राक्षस जोर से बोला-"जो दूसरे की इच्छा के अनुसार देता है, ऐसा व्यक्ति तीन लोक में भी दुर्लभ है, फिर भी हे कुमार! मांगने की इच्छा वाला होने पर भी मैं कैसे मांगू?" "मैं मांगू' ऐसा विचार मन में आते ही चित्त में रहे सभी सद्गुण तथा वाणी से मांगने पर काया में रहे सभी सद्गुण मानों भय से भाग जाते हैं। दोनों प्रकार के मार्गण (बाण व याचक) दूसरों को पोड़ाकारी हैं। आश्चर्य यह है कि एक अन्दर प्रवेश करने पर पीड़ा पहुंचाता है, जबकि दूसरा तो दिखने मात्र से ही पीड़ा पहुंचाता है। __ "धूल हल्की वस्तु है, धूल से तृण हल्का है, तृण से रुई (कपास) हल्की है, रुई से पवन हल्का है और पवन से भी याचक हल्का है।" कहा भी है-“हे माता! दूसरों के पास मांगने वाले पुत्र को तू जन्म मत देना, परन्तु दूसरे की प्रार्थना का भंग करने वाले पुत्र को तो गर्भ में भी धारण मत करना।" __ "प्रतः हे उदार ! जनाधार ! रत्नसार कुमार ! यदि तू मेरी प्रार्थना का किसी प्रकार से भंग न करे तो मैं कुछ याचना करूं।" उसने कहा--"अरे! धन, मन, वचन, पराक्रम, उद्यम और देह व जीवन से जो कुछ भी साध्य होगा, उसे मैं सिद्ध करूंगा।" तब राक्षस ने कहा- "हे श्रेष्ठिपुत्र ! भाग्यशाली ! यदि ऐसा ही है तो आप इस नगर के राजा बनो। तुम समस्त गुणों वाले हो, अतः मैं हर्षपूर्वक यह राज्य तुम्हें देता हूँ। इस विशाल राज्य का तुम दीर्घकाल तक भोग करो। मैं नौकर की भाँति हमेशा तुम्हारे प्राधीन हूँ और दिव्य ऋद्धि, दिव्य भोग, सेना तथा अन्य भी जो कुछ तुम्हारी इच्छा होगी, वह मैं दूंगा। तुम्हारे सभी शत्रनों का शीघ्र हो नाश होने से उनकी स्त्रियों के प्रश्रज तुम्हारी नवीन प्रताप अग्नि हमेशा बढ़ती रहे। हे राजेन्द्र ! मेरे जैसे देवताओं की सहायता से इस समस्त पृथ्वी पर इन्द्र की भांति तुम्हारा एकछत्र साम्राज्य हो। स्वर्ग में भी देवांगनाएँ तुम्हारा नित्य यशोगान करती रहें।" ये बातें सुनकर रत्नसार मन में सोचने लगा-"मेरे बड़े पुण्य से यह राक्षस मुझे राज्य दे रहा है, परन्तु मैंने तो पूर्व में आचार्य भगवन्त के पास पाँचवें अणुव्रत में राज्य नहीं स्वीकार करने का नियम लिया है और अभी मैंने इसको आगे स्वीकार किया है कि तुम जो कहोगे वह मैं करूंगा। अतः मेरे सामने बड़ी समस्या खड़ी हो गयी है। एक ओर कुप्रा और दूसरी पोर डाकुत्रों का धावा, एक ओर बाघ और दूसरी ओर नदी, एक ओर शिकारी और दूसरी ओर पाश; अहो ! मेरी भी यह हालत हो गयी है। एक ओर प्रार्थना का भंग और दूसरी ओर मेरे व्रत की हानि ! हाय ! अब तो मैं अत्यन्त संकट में आ गया हूँ। अथवा दूसरे की प्रार्थना होने पर भी वही करना चाहिए जिससे खुद के व्रत का भंग न हो क्योंकि व्रत भंग होने पर क्या रहता है ? उस दाक्षिण्य से भी क्या फायदा, जिससे धर्म बाधित होता है। उस स्वर्ण से भी क्या

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