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श्रावक जीवन-दर्शन/३५५
प्रकार की अवस्था में मरे हुए की प्राय: ऐसी ही गति होती है। उस दुष्ट राक्षस ने एक क्षण में ही राजा को खत्म कर दिया। अति जल्दबाजी में किये गये कार्य का यही परिणाम होता है।
__उस राक्षस ने सभी नगरलोकों को भी नगर से बाहर निकाल दिया। राजा के बिना विचारे किये गये कार्य से प्रजा भी परेशान होती है। आज भी जो अन्तःपुर में जाता है, उसे वह तत्क्षण मार देता है। "हे वीर! इसी कारण मैं यमराज के मुख समान इस नगरी में प्रवेश करते हुए तुम्हें रोकती हूँ।" मैना के वाक्चातुर्य और हितवचनों से कुमार को अत्यन्त ही आश्चर्य हुमा, परन्तु उसे लेश भी भय नहीं हुआ।
उस नगर में प्रवेश करने के लिए कुमार अत्यन्त ही उत्कण्ठित हुआ। राक्षस के पराक्रम को देखने के कौतुक से, रणभूमि में प्रवेश करने वाले शूरवीर की भाँति उसने नगर में प्रवेश किया। नगर में उसने मलयाचल पर्वत के समान चन्दन के ढेर देखे । कहीं पर भृगांग कल्पवृक्ष की भाँति स्वर्ण प्रादि के अनेक पात्र देखे। कहीं पर खलिहान की भाँति कपूर, शालि आदि अनाज के ढेर देखे। कहीं पर सार्थ की भाँति सुपारी आदि की अनेक दुकानें देखी। कहीं पर हलवाई की अनेक दुकानें थीं। कहीं पर सरोवर की भाँति अच्छा पानी था।
___ कहीं पर चन्द्र समान उज्ज्वल सफेद वस्त्र की दुकानें थीं। कहीं पर निधि की भांति चन्दन आदि की दुकानें थीं। कहीं हिमालय पर्वत की भाँति विविध औषधियों वाली गान्धिक की दुकानें थीं। कहीं पर अभव्य प्राणी के पुण्य की भांति भावशून्य बुद्धि (अक्ल) की दुकानें थीं। कहीं पर सुवर्ण अच्छे अक्षरवाले शास्त्र की भाँति सुवर्ण से पूर्ण सर्राफे की दुकानें थीं। कहीं पर मुक्त आत्माओं से सहित मुक्ति की भाँति अनेक मोतियों से समृद्ध मोतियों की दुकानें थीं। कहीं पर वन की भाँति प्रवाल से पूर्ण प्रवाल की दुकानें थीं। कहीं पर रोहणाचल पर्वत की भाँति सुन्दर मणियों वाली जवाहरात की दुकानें थीं। कहीं पर आकाश के समान देवता-अधिष्ठित कुत्रिकापणे थीं।
सुप्त व प्रमादी चित्त की भांति नगर में सर्वत्र शून्यता थी, परन्तु विष्णु की भाँति वह नगरी चारों ओर से (समद) लक्ष्मी वाली थी। जिस प्रकार देवता विमान में जाता है, उसी प्रकार बुद्धिमान् रत्नसार कुमार चारों ओर देखता हुआ राजा के महल में पहुंचा।
हाथीशाला, अश्वशाला और शस्त्रशाला आदि को पार कर वह चक्रवर्ती की भाँति चन्द्रशाला में पहुंचा। वहाँ पर उसने इन्द्र की शय्या के समान अत्यन्त मनोहर मणिमय रत्नशय्या देखी। वहाँ पर इन्द्र के जैसे साहस वाला वह निर्भीक कुमार श्रम को दूर करने के लिए जैसे अपने भवन में सोता हो, वैसे ही निश्चिन्तता से मीठी निद्रा से सो गया।
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__ मनुष्य के पैरों की हलचल देखकर गुस्सा हुअा राक्षस जैसे वीर शिकारी सिंह के पीछे चलता है, वैसे ही वहाँ आया। उसको सुखपूर्वक सोया हुआ देखकर वह राक्षस मन में सोचने लगा, "अरे ! जिस कार्य के बारे में सोचना भी कठिन है, कुमार ने वह कार्य लीलापूर्वक कर लिया, अहो ! इसकी कितनी धृष्टता है ! तो अब मेरे इस शत्रु को किस मार से मारूं ? क्या नाखूनों से फल की भाँति इसका मस्तक चीर डालू? अथवा क्या गदा से इसको एकदम चूर्ण बना हूँ। अथवा क्या छुरी से चीभड़े की भाँति इसको छेद डालू? अथवा नेत्र की आग से जिस प्रकार