Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

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Page 370
________________ श्रावक जीवन-दर्शन / ३५३ जैसे दुष्ट अग्रणी पथिक को उन्मार्ग में ले जाता है उसी प्रकार उसके तेज का अनुसरण करने वाला कुमार भी बहुत दूर ले जाया गया। बड़ी मुश्किल वह मिला । जितने में 'कुमार क्रोध से लुटेरे की भाँति उसे पकड़ने लगा ! इतने में गरुड़ की भाँति वह आकाश में उड़ गया । कुमार ने उस चोर पुरुष को कुछ दूरी तक श्राकाश में जाते हुए देखा, उसके बाद वह भय से भागे हुए की तरह नजर नहीं आया । आश्चर्यपूर्वक कुमार ने सोचा - "यह निश्चित ही मेरा शत्रु कोई विद्याधर, देव अथवा दानव होगा । भले चाहे जो हो, वह मेरा क्या नुकसान कर सकता है ? परन्तु पोपट का अपहरण करके उसने दो प्रकार से चोर का आचरण किया है। हाय ! बुद्धिमान् पोपट ! धीर ! वीर ! तुम्हारे समान प्रियमित्र के बिना सुन्दर वचनों से मेरे कानों को कौन सुख देगा ? हे धीरशिरोमणि ! आपत्ति में तेरे बिना मेरी कौन सहायता करेगा ? अब क्या होगा ?" इस प्रकार क्षणभर खेद करके उसने मन में सोचा, "विषभक्षरण के समान इस प्रकार व्यर्थ ही विषाद करने से क्या फायदा ? यथायोग्य प्रयत्न करने पर ही खोई वस्तु की प्राप्ति हो सकती है । चित्त की एकाग्रता से ही प्रयत्न में सफलता मिल सकती है, अन्यथा नहीं। मंत्र आदि भी एकाग्रता के बिना कभी सिद्ध नहीं होते हैं । अतः पोपट को पाये बिना मैं वापस नहीं लौटूंगा" इस प्रकार निश्चय कर कृतज्ञ कुमार उस तोते की शोध करने लगा । चोर की दिशा में वह बिना थके लम्बी दूरी तक गया, परन्तु कहीं भी उसका पता न चला । आकाश में गये हुए का भूमि पर कैसे पता लगे ? फिर भी कदाचित् उसका पता लग जाय, इस आशा से उसने कंटाला नहीं किया । श्रहो ! श्राश्रित के विषय में सज्जनों की यही स्थिति होती है । 1 देशाटन में साथ में प्रवास कर एवं समयोचित बोलकर पोपट ने जो सहयोग दिया था, उसकी शोध में कष्ट सहन कर उस ऋण को उतार दिया था । इस प्रकार पोपट की शोध में दिन भर घूमते हुए उसने संध्या समय अलकापुरी के समान एक नगर देखा । वह नगर गगनस्पर्शी स्फटिकमय किले से घिरा हुआ था । मणिमय बड़े-बड़े महलों के समूह से वह नगर रोहणाचल की भाँति प्रतीत हो रहा था । महल पर फरकती हुई ध्वजाश्रों से वह नगर सहस्रमुखी गंगा सा प्रतीत हो रहा था । कमल की सुगन्ध से जैसे भ्रमर श्राकर्षित होता है, उसी प्रकार उस नगर की भव्य शोभा से वह रत्नसार भी आकर्षित हो गया । हरिचन्दन के दरवाजों से चारों ओर सुगन्ध फैल रही थी, विश्वलक्ष्मी का मुख ही न हो, ऐसे नगर के द्वार में कुमार ने प्रवेश किया । उसी समय किले पर बैठी हुई मैना ने प्रतिहारी की भाँति कुमार को नगर में जाने से रोका। आश्चर्यचकित होकर कुमार ने कहा "हे मैना ! तू किस कारण से मुझे रोक तुम्हारे हित के लिए ही तुम्हें मना कर रही हूँ । करो। ऐसा मत समझो कि यह मैना व्यर्थ ही तुम्हें को पाये हुए हैं । उत्तम पुरुष बिना कारण कुछ भी नहीं बोलते हैं । यदि कारण को जानने की इच्छा हो तो सुनो रही है ?" यदि जीने की रोक रही है, उसने कहा - " हे महाप्राज्ञ ! इच्छा हो तो नगर में प्रवेश मत पक्षी जाति में हम भी उत्तमत्ता

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