Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

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Page 368
________________ श्रावक जीवन-दर्शन/३५१ रत्न जड़े होने से संध्या के रक्त वर्ण से युक्त था, कहीं पर स्वर्ण जड़ा होने से मेरुपर्वत के शिखर वाला प्रतीत होता था। कहीं हरित रत्नों से हरे घास की प्रतीति हो रही थी। कहीं पर आकाश के समान स्फटिक रत्न लगे होने से आकाश की भ्रान्ति होती थी। कहीं पर सर्य किरण के स्पर्श वाले सूर्यकांत मणियों से अग्नि ज्वाला की प्रतीति होती थी तो कहीं पर चन्द्रकिरणों के सम्पर्क वाले चन्द्रकान्त मणियों से अमृत की वर्षा करता हुआ प्रतीत हो रहा था। उस भव्य महल में चक्रेश्वरी द्वारा पूरित मनोरथ वाला एवं विस्तृत पुण्यलक्ष्मी वाला रत्नसार दोगुदुक देव की भाँति उन दोनों स्त्रियों के साथ सम्पूर्ण दिव्य ऐसे विषयसुख का अनुभव करने लगा, जिसे कई तपस्वी अपने तप को बेचकर भी पाने की इच्छा करते हैं। तीर्थभक्ति, दिव्य ऋद्धि के भोग और उन दोनों स्त्रियों के साथ उसने इसी भव में सर्वार्थसिद्धता प्राप्त कर ली। ___ गोभद्रदेव ने पिता के सम्बन्ध के कारण शालिभद्र के समस्त भोग-सुखों की पूर्ति की थी, इसमें क्या पाश्चर्य है! अति आश्चर्य तो यह है कि चक्रेश्वरी देवी ने पिता-माता आदि का सम्बन्ध नहीं होने पर भी समस्त भोग-सामग्री की पूर्ति की। अथवा पूर्वकृत प्रकृष्ट पुण्य का उदय होने पर क्या आश्चर्य है ! भरत ने मनुष्यपने में ही क्या दीर्घकाल तक गंगादेवी के साथ भोग नहीं किया था? एक बार चक्रेश्वरी देवी की आज्ञा से चन्द्रचूड़ ने कनकध्वज राजा को वर-वधू की बधाई दी। पुत्रियों के दर्शन की उत्कण्ठा वाला, अत्यन्त प्रीति वाला वह राजा अत्यन्त प्रेम से प्रेरित होकर शीघ्र ही अपने सैन्य के साथ निकल पड़ा। अपने अन्तःपुर, सामन्त, मंत्री तथा श्रेष्ठी आदि के साथ सैन्यसहित वह राजा थोड़े ही दिनों में वहाँ आ पहुँचा। श्रेष्ठ शिष्य जैसे गुरु को नमन करते हैं, उसी प्रकार कुमार, पोपट तथा कन्याओं ने शीघ्र ही सम्मुख आकर संभ्रमपूर्वक राजा को प्रणाम किया। बछड़ियाँ जैसे प्रेम से गाय (माता) को मिलती हैं, उसी प्रकार वे दोनों कन्याएँ प्रेम से अपनी माता को मिलीं। विश्वश्रेष्ठ उस कुमार एवं उसकी दिव्यऋद्धि को देख राजा ने परिवार सहित उस दिन को बड़ा दिन माना। उसके बाद कामधेनु समान उस देवी की कृपा से कुमार ने सैन्यसहित राजा का आतिथ्य-सत्कार किया। उसकी भक्ति से खुश हुए राजा ने अपनी नगरी में लिए उत्सुक होते हए भी उत्सुकता नहीं बताई। दिव्य ऋद्धि को देख किसका मन राग वाला नहीं होता है ! कुमार की भक्ति व उस तीर्थ की सेवा से राजा आदि उन दिनों को अपने जीवन के श्रेष्ठ दिन मानने लगे। ___ एक दिन राजा ने कहा- "हे पुरुषोत्तम ! जिस प्रकार पुण्यशाली आपने इन दोनों कन्याओं को कृतार्थ किया है, उसी प्रकार हमारी नगरी में पधार कर उसे भी कृतार्थ करो।" इस प्रकार अत्यन्त अभ्यर्थना करके राजा ने कुमार आदि सभी के साथ अपने नगर की ओर प्रयाण किया। उस समय साथ चलने वाली चक्रेश्वरी देवी, चन्द्रचूड़ आदि विमान में जाने वाले देवताओं से आकाश भी व्याप्त हो गया, मानों वह भूमि पर चल रही सेना की स्पर्धा नहीं कर रहा हो। निरन्तर उन विमानों के चलने से छत्र वाली उस सेना ने ताप को महसूस नहीं किया जैसे सूर्यकिरणों के नहीं पड़ने से भूमि ताप को महसूस नहीं करती है।

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