Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

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Page 366
________________ श्रावक जीवन-दर्शन/३४६ सखी के समान अपनी विद्या से उसने उसका प्रारम्भ से सारा वृत्तान्त जान लिया और एक दिन अपने शल्य की भाँति उसे पिंजरे से बाहर निकाल दिया। शौक्य भाव की आशंका से उसने उसे निकाल दिया परन्तु भाग्य योग से उसके लिए तो अच्छा ही हुआ। नरक की भाँति विद्याधर के भवन से निकली हुई वह शबरसेना अटवी की ओर भागने लगी। विद्याधर के आगमन की का से आतंकित व आकुल-व्याकुल मन वाली वह धनुष से छटे बाण की भाँति वेग से दौड़ती हुई एकदम थक गयी। भाग्य से खींची हुई वह विश्राम के लिए यहाँ आई और यहाँ तुम्हें देखकर तुम्हारी गोद रूप कमल में लीन हो गयी। "हे कुमार ! वह हंसिनी मैं हूँ, विद्याधर वह था, जो मेरे पीछे आया था और क्षणभर में तुमने उसे जीत लिया।" अपनी बहिन का यह वृत्तान्त जानकर उसके दुःख से तिलकमंजरी जोर से विलाप करने लगी। वास्तव में, स्त्रियों की यही दशा होती है। वह बोली-"हाय ! भय की राजधानी समान जंगल में मेरी स्वामिनी अकेली कैसे रही होगी? विधाता की इस विधि को धिक्कार हो।" "सदा सुख में रहने वाली देवी की भाँति तूने पिंजरे के दुःखवास को कैसे सहन किया ? हे बहिन ! हाय ! तुझे इसी भव में तिथंचपना प्राप्त हो गया। विधि को धिक्कार हो, जो नट की भांति सत्पात्र में भी विडम्बना करता है। सचमुच, पूर्वभव में तुमने कौतुक से किसी का विरह कराया होगा और निश्चित ही मैंने उसकी उपेक्षा की होगी, उसी का यह फल है । हाय ! मूर्तिमान दौर्भाग्य की भाँति दुर्भाग्य से उत्पन्न यह तिर्यंचपना कैसे दूर होगा?" इस प्रकार तिलकमंजरी जब विलाप कर रही थी तब खेद को दूर करने वाले सुमित्र की भाँति चन्द्रचूड़ ने उस हंसिनी पर जल का सिंचन किया और तत्क्षण उसके प्रभाव से वह कन्या रूप में आ गयी। (४) विवाह-विधि कुमार आदि के प्रानन्द में कारणभूत वह कन्या नवीन उत्पन्न सरस्वती देवी तथा सागर से निकली हुई लक्ष्मी की भाँति चमकने लगी। उसी समय रोमांचित बनी उन कन्याओं ने परस्पर आलिंगन किया। प्रेम की यही स्थिति होती है। कौतुक से कुमार ने कहा- "हे तिलकमंजरी! यहाँ हमको कुछ पारितोषिक मिलना चाहिए। हे चन्द्रमुखी ! बोलो क्या दोगी? और शीघ्र दो। औचित्यदान आदि को लेने में तथा धर्म में कौन विलम्ब करता है ?" रिश्वत, औचित्यादि दान, ऋण, शर्त, सुभाषित, निश्चित वेतन, धर्म, रोगनाश व शत्रुनाश में कालक्षेप करना उचित नहीं है तथा क्रोधावेश, नदी की बाढ़ में प्रवेश, पापकर्म, अजीर्ण पर भोजन तथा भय के स्थान में जाना हो तो कालक्षेप अच्छा गिना जाता है। .. लज्जा, कम्प, स्वेद, रोमांच, लीला, विच्छित्ति, विभ्रम आदि विकारों से बींधी हुई होने पर भी धैर्य धारण कर वह मुग्धा बोली-“सर्वांगीण उपकारी ऐसे आपको सर्वस्व देने योग्य है, अतः विशेष प्रकार की शृगारिक भावभंगिमा ।

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