Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

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Page 371
________________ श्राविधि/३५४ (५) कसौटी रत्नपुरनगर में पराक्रम और प्रभुता से दूसरा ही इन्द्र न हो ऐसा पुरन्दर नाम का राजा था। इस नगर में नाना वेष को धारण करने वाला दुर्दैव की भांति दुर्दम कोई चोर सब कुछ चोरी कर लेता था। वह अपनी इच्छानुसार विचित्र प्रकार की सेंध लगाता था और धन से भरे हुए पात्र उठाकर ले जाता था। वृक्ष जैसे नदी की बाढ़ को नहीं रोक सकते, उसी प्रकार अत्यन्त बलवान कोतवाल भी उस चोर को पकड़ने में समर्थ नहीं थे। .. एक बार राजा जब राजसभा में बैठा हुआ था, तब नगरजनों ने पाकर राजा को प्रणाम कर चोर के उपद्रव की बात कही। यह सुनकर कोप से लाल नेत्र वाले राजा ने तुरन्त ही प्रारक्षकों के अग्रणी को बुलाया और उसे फटकारा। कोतवाल ने भी कहा-"असाध्य व्याधि की तरह मेरे तथा मेरे अधीन किसी के द्वारा उस चोर का प्रतिकार नहीं हो सकता है, अतः जो उचित लगे वह करो।" इस बात को जानकर महातेजस्वी और यशस्वी राजा स्वयं एक रात्रि में चोर की शोध के लिए निकल पड़ा। घोर रात्रि में अचानक राजा ने उस चोर को सेंध लगाते हुए माल सहित देख लिया। अप्रमत्तव्यक्ति को कौनसी सिद्धि नहीं होती है ? जिस प्रकार बगुला चुपचाप मछली का अनुगमन करता है, उसी प्रकार राजा ने भी उस धूर्त चोर का पीछा किया। प्रत्युत्पन्न बुद्धि वाले उस चोर ने राजा की दृष्टि को ठगकर शीघ्र ही एक मठ में प्रवेश कर दिया। उस मठ में कुमुद नामका एक सरल तपस्वी रहता था। वह तापस निद्राधीन था, उसी समय उस शठ चोर ने जीवन के लिए भारस्वरूप चोरी का वह माल वहीं पर छोड़ दिया और स्वयं कहीं भाग गया। इधर चोर की शोध करता हुआ वह राजा इधर-उधर घूमता हुमा वहाँ पाया और उसने मठ में चोरी के माल सहित तापस को देखा। क्रोधित होकर राजा ने उस तापस को कहा, "दण्डचर्मधारी ! रे दुष्ट ! चोर ! चोरी करके अब तू सो रहा है ? कपट निद्रा करने वाले तुझको मैं चिर निद्रा में सुला देता हूँ।" राजा के वज्रपात समान इन वचनों को सुनकर संभ्रांत की तरह वह तापस खड़ा हुआ किन्तु कुछ भी बोल न सका। उसी समय निर्दय राजा के आदेश से सैनिकों ने उसे बांध लिया। राजा ने उसे शूली पर चढ़ाने का आदेश दे दिया। अहो ! अविचारी कृत्य को धिक्कार हो। तापस ने कहा-“हे आर्यो! बिना चोरी किये ही मुझे मारा जा रहा है । हाय ! हाय !" तापस की बात सत्य होने पर भी धिक्कार के लिए ही हुई। __ जब भाग्य ही प्रतिकूल हो जाता है, तब अनुकूल कौन बनता है ? देखो! अकेले चन्द्र को राहु भी ग्रसित कर जाता है। उस समय यमराज के समान भयंकर राजा के सैनिकों ने तापस का मुंडन कराकर उसे गधे पर चढ़ाया और विविध विडम्बना कर प्राणघातक शूली पर चढ़ा दिया। अहो ! पूर्व में किये गये दुष्कर्म का परिणाम कितना भयंकर होता है ! तापस शान्त प्रकृति का था, फिर भी उसे अत्यन्त क्रोध पैदा हो गया। क्या शीतल पानी भी तपाने पर प्रत्युष्ण नहीं होता है ? वह तापस मरकर अति उग्रप्रकृति वाला राक्षस बना। इस

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