Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

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Page 365
________________ श्राविषि/३४८ तिरस्कारसमान ही लगते थे। वह अनेक उपचार करता परन्तु वे उपचार भी उसे आपत्ति रूप लगते थे। उसके प्रेमालाप भी उसे अनिष्ट लगते थे। इस प्रकार सत्त्वहीन बाल बुद्धिवाला वह विद्याधर कुछ देर तक उसे सान्त्वना देने लगा। वह सब उसके लिए राख में हवन करने, जलप्रवाह में पेशाब करने तथा बंजर भूमि में बोने व छिड़काव के समान ही था। इस प्रकार उसकी प्रवृत्ति निष्फल थी फिर भी वह उससे रुका नहीं; चित्तभ्रमित व्यक्ति की भाँति कामी पुरुषों को कोई विचित्र ग्रह होता है। एक बार वह अनार्य किसी काम से अपने नगर में गया हुआ था, उस समय झूले में झूलते उस तापसकुमार ने आपको देखा था। वह पाप पर विश्वास रखकर जब अपना वृत्तान्त कह रहा था, तभी वह विद्याधर वहाँ आ गया और उसने पाक के कपास की भांति उसका अपहरण कर लिया और अपने नगर में मणिरत्नों से देदीप्यमान अपने दिव्य मन्दिर में ले जाकर क्रोध से बोला-"अरे भोली! ऐसी तू चतुरा उस चतुर कुमार के साथ प्रेम से बात करती है और तुम्हारे अधीन होने पर भी मुझे जवाब भी नहीं देती है। अपने कदाग्रह को छोड़ दे और आज भी मुझे स्वीकार करले अन्यथा तेरी पीड़ा के लिए मैं कृतान्त तुझ पर कुपित हुआ हूँ।" साहस का आलम्बन लेकर उसने कहा-"कपटी व बलवान लोग छल और बल से राजऋद्धि आदि को साध सकते हैं, किन्तु छल व बल से कभी प्रेम को नहीं साध सकते। उभय चित्त प्रसन्न हों तभी चित्त में प्रेम रूप अंकुर उत्पन्न हो सकता है। घी के बिना जैसे मोदक तैयार नहीं होता, वैसे ही स्नेह बिना सम्बन्ध नहीं होता। सम्बन्ध कराने वाले द्रव्य से लकड़ियों का भी संबन्ध हो जाता है। अतः जो स्नेहहीन को चाहता है, उससे बढ़कर दूसरा मूर्ख कौन हो सकता है ? जो अयोग्य स्थान में भी सम्बन्ध करना चाहता है, उस मन्दबुद्धि वाले को धिक्कार हो।" यह बात सुनकर वह अत्यन्त कुपित हो गया और उसने निर्दयता से म्यान में से तलवार निकाल ली और बोला-"अरे ! मैं तुझे खत्म कर दूंगा, तू मेरी भी निन्दा करती है ?" उसने कहा-"अनिष्ट सम्बन्ध के बजाय तो मरना ही श्रेष्ठ है। यदि तू मुझे नहीं छोड़ेगा तो दूसरा विचार किये बिना मुझे शीघ्र मार दे।" तब उसके पुण्य से उसने सोचा-"अरे! मुझे धिक्कार हो। बिना सोचे-समझे मैं क्या कर रहा हूँ? जिसके अधीन जीवन हो तथा जिसे प्राणप्रिया बनानी हो, ऐसी स्त्री के प्रति क्रोध से कठोर आचरण कौन करेगा?" सामवृत्ति से ही सर्वत्र प्रेम की उत्पत्ति सम्भव है और विशेष करके नारो में। पांचाल ने कहा भी है-"स्त्रियों के विषय में मृदुता रखनी चाहिए।" इस प्रकार विचार कर, जिस प्रकार कृपण व्यक्ति अपने धन को अन्दर रख देता है, उसी प्रकार उल्लसित मन वाले उसने तलवार म्यान में डाल दी और कामकरी विद्या से उसने नवीन सृष्टिकर्ता की भाँति उस प्रशोकमंजरी को मनुष्य की भाषा बोलने वाली हंसिनी बना दी और उसे माणिक्य रत्नमय मजबूत पिंजरे में रख पूर्व की भांति उसे खुश करने का प्रयत्न करने लगा। __एक बार शंकित मनवाली उसकी पत्नी कमला ने उसे चाटुकारितापूर्ण वचन बोलते हुए सुन लिया। यह देख उसे ईर्ष्या पैदा हुई क्योंकि वास्तव में, स्त्रियों की ऐसी ही प्रकृति होती है।

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