________________
श्रादविधि/३४६
कल्पान्तकाल का आगमन होने पर भी धीरपुरुष कभी कायर बनते हैं ? उसके बाद कुमार ने लक्ष्य बिना ही चारों ओर बाणवृष्टि चालू कर दी। आपत्ति माने पर धीरपुरुषों का विशेष प्रयत्न होता है।
कुमार को विकट संकट में देखकर उस (चन्द्रचूड़) देव ने विशाल मुद्गर हाथ में उठाया और वह उस विद्याधर को खत्म करने के लिए तैयार हो गया।... -
गदाधारी भीम की भाँति भयंकर रूप वाले उसके आगमन को देखकर वह विद्याधरेन्द्र दुःशासन की भाँति शीघ्र क्षुब्ध हो गया। फिर भी वह प्रकर्ष धैर्य को धारण कर अपने समस्त रूप, भुजा तथा सर्वशक्ति से उस देव पर चारों ओर से प्रहार करने लगा। देव की अचिन्त्य शक्ति तथा कुमार के अद्भुत भाग्य से शत्रु के प्रहार दुर्जन पर किये गये उपकार की भांति निष्फल हो गये।
जिस प्रकार इन्द्र वज्र से पर्वत पर प्रहार करता है, उसी प्रकार चन्द्रचूड़ ने भावेश में आकर उसके मुख्य रूप के मस्तक पर तीव्र प्रहार किया।
देव ने अपनी सर्वशक्ति से जो प्रहार किया उससे कायर के प्राण को नाश करने वाली भयंकर आवाज हुई। विद्या से अभिमानी, तीन लोक को जीतने के इच्छुक वासुदेव की भांति उसके मस्तक पर किये गये प्रहार से उसका वज्र की भांति दृढ़ मस्तक भेदा नहीं गया, फिर भी भय पाकर उसकी बहुरूपिणी विद्या कौए की भाँति शीघ्र भाग गयी।
अहो ! देव की सहायता आश्चर्यकारी होती है। कुमार स्वभाव से ही शत्रुओं के लिए राक्षस के समान भयंकर लग रहा था और उसमें 'अग्नि को सहायक पवन' की भांति इसे अजेय देवता की सहायता मिल गयी है-इस प्रकार विचार कर धैर्यहीनों में अग्रणी वह विद्याधर भाग गया।
कहा भी है-"जो भाग जाता है, वह जीवित रहता है।"
अपनी इष्ट विद्या को भागते हुए देखकर मानों उसे देखने के लिए वह भी आवेगपूर्वक उसके पीछे दौड़ा।
सहोक्ति द्वारा कहे गये कार्यों में से एक का नाश होने पर दूसरे का भी नाश हो जाता है, इसीलिए ही मानों उस विद्या का लोप होने पर वह विद्याधर राजा भी लुप्त हो गया। उसके भागने के साथ उसके सेवक विद्याधर भी भाग गये। अथवा दीपक के बुझने पर क्या उसकी प्रभा रहती है ?
कहाँ वह सुकुमाल कुमार और कहाँ वह कठोर विद्याधर। फिर भी उसने उसे जीत लिया। सच है-जिधर धर्म होता है, उसी की विजय होती है।
जिस प्रकार राजा सेवक के साथ महल में माता है, उसी प्रकार दुर्जय शत्रु पर विजय से उत्कर्ष पाये हुए देवता के साथ वह रत्नसार भी उस प्रासाद (मन्दिर) में पाया।
कुमार के इस अतिशय चमत्कारी चरित्र को देखकर हर्ष से पुलकित बनी तिलकमंजरी सोचने लगी-"तीन लोक में शिरोमणिभूत यह कोई युवा मनुष्यों में रत्न समान है। यदि भाग्य