Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

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Page 361
________________ बाढविषि/३४४ जिनेश्वर की प्रतिमा की ओर उल्लास व भक्ति से देखता था तथा दो आंखों से कुमार की पोर ईर्ष्या व रोष से देखता था तथा दो आँखों से कुमार के तेज को भय व विस्मय से देखता था। __इस प्रकार वह अपनी भुजाओं की स्पर्धा ही से विविध प्रवृत्ति वाले अपने नेत्रों से भिन्न-भिन्न भावों को प्रगट करता था। यमराज की भांति भयंकर व कल्पान्तकाल की भांति असह्य वह विश्व को क्षुब्ध करने वाले उत्पात (उपद्रव) की भांति आकाशमार्ग में खड़ा था। रावण की तरह उसके अत्यन्त भीषण व भयंकर स्वरूप को देखकर वह तोता बन्दर की भाँति डर गया। ऐसे भयंकर स्वरूप वाले के सामने कौन खड़ा रह सकता है ? जलती हुई दावानल की ज्वालाओं को पीने के लिए कौन उत्साहित होता है ? भयभीत बने उस तोते ने उस कुमार की शरण स्वीकार कर ली। उस प्रकार के भय में उसके सिवाय दूसरा कौन शरण के लिए उचित है ? विद्याधर राजा ने कुमार को ललकारते हुए कहा-"अरे कुमार! तू दूर भाग जा, नहीं तो तू जीवित नहीं रहेगा। अरे निर्लज्ज! मर्यादाहीन ! निरंकुश! तू मेरी जीवन की सर्वस्व हंसिनी को गोद में लेकर बैठा है ? अरे! तू निर्भय व निःशंक होकर आज भी मेरे आगे बैठा है। हे मूर्ख ! नित्य दुःखी की भांति तू वास्तव में शीघ्र मरना चाहता है ?" ___उस समय तोता शंका से, मयूर कौतुक से, तिलकमंजरी त्रास से व हंसिनी संशय से कुमार को देख रहे थे, तभी हंसता हुआ वह कुमार बोला-"अरे! तू मुझे व्यर्थ क्यों डराता है ? यह भय तू बालक को बता सकता है, परन्तु वीर को नहीं। ताली बजाने से अन्य पक्षी शीघ्र भयभीत हो जाते हैं परन्तु पटह की ध्वनि से धृष्ट बने हुए मठ के कबूतर नहीं डरते हैं । कल्पान्त में भी मैं इस शरणागत हंसिनी को नहीं छोड़ सकता है। फिर भी तू सर्प के मस्तक पर रहे हुए मणि की भाँति इसको पाने की इच्छा करता है तो तुझे धिक्कार हो। इसकी स्पृहा छोड़कर तू शीघ्र ही दूर हट जा, अन्यथा तेरे दस मस्तकों को मैं दशों दिशानों के स्वामियों को बलि कर इसी समय कुमार की सहायता करने के लिए इच्छुक देव ने मोर का रूप छोड़कर देव का रूप किया। वह चन्द्रचूड़ देव अनेक प्रकार के हथियारों को धारण कर, मानो आमंत्रण देकर बुलाया न हो, इस प्रकार कुमार के पास आया। अहो! पुण्य की करामात देखो। चन्द्रचूड़ बोला-“हे कुमारेन्द्र ! तुम इच्छानुसार युद्ध करो। मैं शस्त्रों की पूर्ति करूंगा और तुम्हारे शत्रु को समाप्त करूंगा।" कवच को प्राप्त करने वाले सिंह तथा पंख वाले तक्षक सर्प की तरह उसका उत्साह दुगुना हो गया। उसके बाद तिलकमंजरी के कर-कमल में हंसिनी को छोड़कर, विष्णु जिस प्रकार गरुड़ पर चढ़ता है, उसी प्रकार वह घोड़े पर आरूढ़ हुआ। चन्द्रचूड़ ने सेवक की भांति उसे बारणों के तरकस सहित गांडीव की समृद्धि की भी विडम्बना करने वाला धनुष प्रदान किया।

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