Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

View full book text
Previous | Next

Page 362
________________ श्रावक जीवन-दर्शन/३४५ उसके बाद प्रचण्ड भुजदण्ड पर धनुष के मण्डल का प्रास्फालन करते हए रत्नसार ने चन्द्रचूड़ से थरथराहट का समय प्राप्त किया हो ऐसा लगता था। उसके बाद धनुष की टंकार से दसों दिशाओं को कोलाहलमय बना दिया और उन दोनों योद्धानों के बीच बाणयुद्ध प्रारम्भ हग्रा। इन दोनों के हाथ इतने अधिक कुशल थे कि कोई दक्ष व्यक्ति भी उनके बाण निकालने, बाण का सन्धान करने और बाण छोड़ने की क्रिया को नहीं जान सकता था। किन्तु पोपट आदि ने सिर्फ उनकी बाणों की वृष्टि को ही देखा। शीघ्र बरसने वाले मेघ में जल के क्रम को कौन जान सकता है ! धनुर्विद्या में कुशल ऐसे उन दोनों के बाण ही परस्पर टकराते थे। इस प्रकार अत्यन्त क्रोधी उन दोनों योद्धाओं का सेल्ल, वावल्ल, तीरी, तोमर, ताल (एक प्रकार का बाण), अर्द्धचन्द्र, अद्धनाराच, नाराच आदि तथा अनेक प्रकार के तीक्ष्ण बाणों द्वारा लम्बे समय तक युद्ध होता रहा। युद्ध में अदीन और समान बली होने से महाठग की भाँति उन दोनों की विजय में भी संशय पैदा हो गया। एक अोर विद्या का बल और दूसरी ओर देवता का बल होने से बालीराजा और रावण के युद्ध की भाँति उनकी विजय का शीघ्र निर्णय कैसे हो सकता था ! न्याय से उपार्जित धन जिस प्रकार वृद्धि पाता है, उसी प्रकार न्याय धर्म के बल की अधिकता के कारण रत्नसार का पराक्रम बढ़ने लगा। अपनी हार जानकर युद्ध में हतोत्साही बना विद्याधर युद्ध की नीति छोडकर सर्वशक्ति से कुमार पर टूट पड़ा। अपनी बीस भुजाओं से विविध प्रकार के शस्त्रों को लेकर हजार भजा वाले की तरह वह अत्यन्त भयंकर हो गया। वास्तव में, अन्याय के युद्ध से कोई कभी विजयी नहीं हो सकता, इस प्रकार विचार कर सुन्दर बुद्धि बाला कुमार अत्यन्त उत्साह में आ गया। कुमार ने तुरगेन्द्र के प्रयोग से खेचरेन्द्र के सभी प्रहारों को निष्फल कर दिया और शीघ्र ही क्षुरप्र बाण हाथ में ले लिया। बाणों के छेदने के मर्म को जानने वाले उस कुमार ने उस्तरे की भाँति क्षुरप्र शस्त्र से उसके समस्त शस्त्रों को लीला मात्र में नष्ट कर दिया। उसने एक अर्द्धचन्द्र बाण से उसके धनुष व दण्ड के भी दो टुकड़े कर दिये और दूसरे अर्द्धचन्द्र बाण से उसकी छाती को बींध दिया। अहो ! वणिक्कुमार का भी यह कैसा अलौकिक पराक्रम था! वह विद्याधर पत्ते रहित पीपलवृक्ष की भाँति शस्त्ररहित हो गया। छाती के बींधने के कारण उसकी छाती में से लाक्षारस की भाँति खून बहने लगा। ऐसी दुर्दशा होने पर भी क्रोध से अन्ध बने उस विद्याधर ने अपनी बहुरूपिणी विद्या से बहुत से रूप कर लिये। ___आकाश में उसके लाखों रूप जगत् के लिए भी मानों ईति स्वरूप होने के कारण अत्यन्त अहित के लिए हुए। कल्पान्तकाल के अत्यन्त भयंकर बादलों की तरह उसके लाखों रूपों से आकाश व्याप्त होने के कारण वह आकाश दुर्लक्ष्य हो गया। कुमार ने जहाँ-जहाँ अपनी नजर डाली वहाँ उसे भुजाओं से दुर्धर्ष ऐसा वह विद्याधर ही दिखाई दिया। इससे कुमार को आश्चर्य लगा परन्तु वह लेश भी भयभीत नहीं हुआ। क्या

Loading...

Page Navigation
1 ... 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382