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श्रादविषि/३२८
से भी सुखप्राप्ति नहीं होती है। सुभूम चक्रवर्ती, कोणिक राजा, मम्मण सेठ तथा हासाप्रहासा का पति प्रसन्तोष के कारण ही (अपार सम्पत्ति के बीच भी) दुःखी थे।
कहा भी है- “सन्तोष को धारण करने वाले अभयकुमार जैसे को जो सुख था, वह सुख प्रसन्तोषी ऐसे इन्द्र व चक्रवर्ती को भी नहीं है।" अपने से ऊपर वाले को देखने के कारण सभी दरिद्री बन जाते हैं, परन्तु नीचे वाले को देखने पर किसकी महिमा नहीं होती है ! अतः सुख का पोषण करने वाले सन्तोष की प्राप्ति के लिए अपनी इच्छानुसार धन आदि परिग्रह का परिमाण करें।"
___"नियमपूर्वक किया गया थोड़ा भी धर्म अनन्तफल प्रदान करता है, जबकि नियमरहित किया गया प्रत्यधिक धर्म भी अल्पफल ही देता है। कुए में थोड़ा भी झरना बहता हो तो उसका जल नियमित होने से अक्षय रहता है जबकि अनियमित बड़ी-बड़ी पानी की धारामों से पूर्ण भरे हुए सरोवर का जल अक्षय नहीं रहता है।
"नियम होने पर व्यक्ति आपत्ति में भी अपना धर्म नहीं छोड़ता है और नियम रूप अर्गला न होने पर सुखी स्थिति में भी व्यक्ति धर्म को छोड़ देता है। नियम ग्रहण करने पर ही धर्म में दृढ़ता रहती है, पशु भी रस्सी से बंधे होने पर ही अच्छी तरह से स्थिर रहते हैं।
"धर्म में दृढ़ता, वृक्ष में फल, नदी में जल, सैनिकमें बल, दुष्ट व्यक्ति में झूठ ,जल में शीतलता पौर भोजन में घी ही जीवन है। अतः बुद्धिमान् पुरुष को धर्मकृत्य में, नियम ग्रहण करने में तथा नियम में दृढ़ता रखने के लिए दृढ़ प्रयत्न करना चाहिए, जिससे अभीष्ट सुख की प्राप्ति होती है।"
सद्गुरु की इस वाणी को सुनकर रत्नसार कुमार ने सम्यक्त्व सहित परिग्रह परिमाणवत को स्वीकार किया। उसने अपने व्रत में एक लाख रत्न, दस लाख स्वर्ण मोती व विद्रुम (प्रवाल) के पाठ-पाठ मूढ़क, आठ करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ, दस हजार भार चांदी, सौ मूढ़क धान्य, एक लाख भार प्रमाण अन्य किराणा, छह गोकुल, पांच सौ घर, चार सौ यान, एक हजार घोड़े तथा एक सौ हाथी से अधिक का संग्रह नहीं करने का नियम लिया। अगर राज्य भी मिले तो ग्रहण नहीं करने का नियम लिया।
पांच प्रतिचारों से रहित विशुद्ध परिग्रहपरिमाणव्रत का स्वीकार कर वह श्रद्धापूर्वक श्रावक धर्म का पालन करता था।
एक बार वह अपने मित्रों के साथ घूमता हुमा 'रोलंबरोल' नाम के बगीचे में चला गया। बगीचे की शोभा को देखता हमा वह क्रीड़ापर्वत पर चला गया।
वहाँ उसने दिव्य रूप व दिव्यवस्त्रों को धारण करने वाले एवं दिव्य गान करने वाले किन्नरयुगल को देखा। उन दोनों का मुख घोड़े के समान और शेष शरीर मनुष्य के समान होने से
और ऐसा दृश्य पहले कभी भी देखा हुआ नहीं होने से उसे बहुत ही आश्चर्य हुआ। वह स्मित करते हुए बोला-"यदि यह मनुष्य अथवा देव है तो इसका मुख घोड़े के समान क्यों ? अतः यह न तो मनुष्य है और न ही देवता। किन्तु किसी द्वीप में उत्पन्न हुमा तियंच (पशु) होना चाहिए । अथवा किसी देवता का वाहन होना चाहिए।" .