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परिशिष्ट-२
सुपात्रदान एवं परिग्रहपरिमारण की महिमा
( रत्नसार-दृष्टान्त )
* व्रतस्वीकार * पूर्वकाल में समृद्धि से भरपूर रत्नविशाला नाम की नगरी थी। उस नगरी में यथार्थ नामवाला समरसिंह नाम का राजा था। उस नगर में दुःखियों के दुःख को दूर करने वाला एवं अत्यन्त समृद्ध वसुसार नाम का व्यापारी था और वसुन्धरा नाम की उसकी पत्नी थी। उनके रत्न के समान श्रेष्ठ गुणों वाला रत्नसार नाम का एक पुत्र था।
एक बार रत्नसार अपने मित्रों के साथ वन में गया। विचक्षण बुद्धि वाले रत्नसार ने वहाँ विनयंधर नाम के प्राचार्य भगवन्त को देखा। उसने आचार्य भगवन्त को नमस्कार किया और उसके बाद पूछा- "इस लोक में सुखप्राप्ति का उपाय क्या है ?"
आचार्य भगवन्त ने कहा- “सन्तोष के पोषण से जीव इस लोक में भी सुखी हो सकता है, अन्यथा नहीं। सन्तोष दो प्रकार का होता है-देशसन्तोष और सर्वसन्तोष । देशसन्तोष गृहस्थों को सुखदायी होता है। परिग्रहपरिमाणवत ग्रहण करने से अतुच्छ (बड़ी) इच्छाओं की निवृत्ति होती है और देशसन्तोष का पोषण होता है ।
“सर्वसंतोष का पोषण साधु भगवन्तों को ही सम्भव है, जो (सर्वसन्तोष) अनुत्तर विमानवासी देवताओं के सुख से भी अधिक (अनुत्तर) सुख देने वाला है।
____ "पंचमांग भगवती सूत्र में कहा है-"एक मास के चारित्रपर्याय वाले साधु वाणव्यन्तर की तेजोलेश्या का. दो मास के पर्यायवाले भवनपति देवों की तेजोलेश्या का. तीन मास के प असुरकुमार देवों की तेजोलेश्या का, चार मास के पर्यायवाले साधु ज्योतिषदेवों की तेजोलेश्या का, पाँच मास के पर्यायवाले चन्द्र-सूर्य विमानवासी देवों की तेजोलेश्या का, छह मास के पर्यायवाले सौधर्म-ईशान देवों की तेजोलेश्या का, सात-मास के पर्यायवाले सनत्कुमार व माहेन्द्र देवताओं की तेजोलेश्या का, आठ मास के पर्याय वाले साधु ब्रह्म एवं लान्तक देवों की तेजोलेश्या का, नौ मास के पर्याय वाले शुक्र व सहस्रार देवों की तेजोलेश्या का, दस मास के पर्यायवाले आनत आदि चार देवों की तेजोलेश्या का ग्यारह मास के पर्यायवाले वेयक देवों की तेजोलेश्या का तथा बारह मास के पर्यायवाले साधु अनुत्तरोपपातिक देवों की तेजोलेश्या का उल्लंघन करते हैं ।
यहाँ तेजोलेश्या से अभिप्राय चारित्र की परिणति होने पर चित्त की प्रसन्नतारूप स्थिति समझना चाहिए।
असन्तोषी व्यक्ति को विशाल बड़े-बड़े राज्यों से, बहुत धन से तथा समग्र भोग के साधनों