Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

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Page 357
________________ श्राद्धविषि/३४० होती हैं। उसके बाद अमृत के समान किरणों वाला, द्विजनायक चन्द्रमा, तीन लोक को मलिन करने वाले अन्धकार को दूर करता हया प्रगट हया। जिस प्रकार नवीन मेघ दया से लता को पल्लवित करता है, उसी प्रकार चन्द्रमा ने अपनी चांदनी से सिंचन करके तिलकमंजरी को शान्त किया। रात्रि के अन्तिम प्रहर में मार्ग को जानने वाली पथिक स्त्री की भाँति उठकर सखियों के साथ निष्कपट मन वाली वह विदुषी बगीचे के मध्य में रहे हुए गोत्रदेवी चक्रेश्वरी के मन्दिर में आई और सुन्दर कमल पुष्पों की माला से कुलदेवता की पूजा कर अत्यन्त भक्ति वाली उस कन्या ने इस प्रकार विज्ञप्ति की—"हे स्वामिनि ! यदि मैंने वास्तविक अन्तरंग भक्ति से सदाकाल आपकी पूजा की हो, नमस्कार किया हो तथा स्तुति की हो तो आज मुझ पर अनुग्रह करके मुझ दीन की बहिन । बतायो। हे माताजी! यदि आप नहीं बतायोगी तो मैं इस भव में भोजन नहीं करूंगी। अपने इष्ट के अनिष्ट की आशंका होने पर कौन नीतिज्ञ व्यक्ति भोजन करता है ?" उसकी भक्ति, शक्ति तथा युक्तिसंगत वचन से खुश हुई देवी शीघ्र प्रगट हो गयी। वास्तव में, एकाग्रता से कौनसी सिद्धि नहीं होती है ? खुश होकर देवी ने कहा- "हे भद्रे ! तेरी बहिन क्षेमकुशल है। हे पुत्री! तू खेद का त्याग कर दे और भोजन ग्रहण कर । एक मास में अशोकमंजरी का पता लगेगा और उसी समय भाग्ययोग से तुम्हारा उसके साथ मिलन होगा। कब, कैसे और कहाँ तुम्हारी बहिन का मिलन होगा, यदि यही तुम पूछना चाहती हो तो जो मैं कहती हूँ, उसे सुनो ___ "इस नगर की पश्चिम दिशा में काफी दूरी पर बहुत बड़ा जंगल है, वृक्षों से सघन होने के कारण कायर पुरुषों द्वारा उसका पार पाना अत्यन्त कठिन है। उस समृद्ध वन में राजा का हाथ तो दूर रहा किन्तु सूर्य की किरणों का भी प्रवेश नहीं होता। इस कारण वहाँ के सियार भी राज-रानियों की भाँति असूर्यम्पश्या (सूर्य को नहीं देखने वाले) हैं। "वहाँ पर बहुत ऊँचा ऋषभदेव प्रभु का मणिमय चैत्य है। पृथ्वी पर आये हुए सूर्य के विमान की भाँति वह शोभता है। जिस तरह गगनमण्डल में पूर्णिमा का चन्द्रमण्डल शोभता है वैसे ही उस मन्दिर में अत्यन्त देदीप्यमान चन्द्रकान्तमणिमय जिनेश्वरदेव की मूर्ति शोभती है। मानों विधाता ने कल्पवृक्ष, कामधेनु और कामकुम्भ आदि वस्तुओं के माहात्म्यसार को ग्रहण करके नहीं बनायी हो? "उस प्रशस्य व अतिशय गुणवाली मूर्ति की पूजा से तुम्हें अपनी बहिन का वृत्तान्त जानने को मिलेगा और फिर वह तुम्हें प्राप्त होगी। वहाँ पर अन्य सभी शुभ होगा । अथवा देवाधिदेव की सेवा से क्या सिद्ध नहीं होता है ? ___"हे सुन्दरि! यदि तुम्हारा यह प्रश्न हो कि उस दूर वन में रहे जिनेश्वर की पूजा के लिए मैं कैसे जाऊंगी और वापस कैसे आऊंगी? तो मेरी बात सुनो-मैं उसका भी उपाय कहती हूँ। कार्य का उपाय अपूर्ण ही बतलाया हो तो कार्य सिद्धि नहीं होती है । "चन्द्रचूड़ के समान शक्तिमान और हर कार्य को करने में तत्पर चन्द्रचूड़ नाम का मेरा नौकर देव है। ब्रह्मा के आदेश से जिस प्रकार हंस सरस्वती को ले जाता है, उसी प्रकार मेरे आदेश से वह मयूर का रूप करके तुम्हें इच्छित स्थान पर ले जायेगा।"

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