Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

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Page 358
________________ श्रावक जीवन-दर्शन / ३४१ देवी के इस प्रकार बोलने के साथ ही श्राकाश से गिरे हुए की भाँति मधुर गाने वाला एक मोर कहीं से प्रगट हो गया। उस तीव्र गति वाले मयूर पर आरूढ़ होकर मैं देवी की भाँति जिनपूजा के लिए क्षण भर में प्राती-जाती हूँ । यह वही जंगल है, चित्त को शीतल करने वाला चैत्य भी यही है, वह कन्या भी मैं हूँ और मेरा विवेकी मोर भी यह है । हे कुमार ! यह मैंने अपना सारा चरित्र तुझे बतला दिया । हे सौभाग्यनिधि ! किन्तु अब मैं शुद्ध मन से तुझे कुछ पूछती हूँ "यहाँ रहते हुए आज मुझे एक माह पूरा हो गया परन्तु मरुभूमि में गंगा के नाम की भाँति मैंने अपनी बहिन का नाम भी नहीं सुना है । हे विश्वश्रेष्ठ कुमार ! क्या आपको विश्व में भ्रमण करते हुए कहीं रूप आदि में मेरे समान कोई कन्या देखने में आई है ? ' कुमार ने स्पष्ट शब्दों में कहा - " भयातुर हरिणी के समान नेत्रवाली ! तीन लोक की स्त्रियों में शिरोमणि ! परिभ्रमण करते हुए मैंने कहीं भी तुम्हारे समान तो क्या, तुम्हारी अंश मात्र भी समानता कर सके ऐसी कन्या न तो देखी है, न देखूंगा और न ही देखता हूँ । परन्तु हे सुन्दरि ! शबरसेना नाम की अटवी में दिव्यदेह को धारण करने वाले, झूले पर आरूढ़ अत्यन्त प्रौढ़ यौवन की लक्ष्मी से मनोरम तथा वारणी माधुर्य, वय रूप व स्वरूप में तुम्हारे समान तापस कुमार को मैंने देखा था । उसके स्वाभाविक प्रेमोपचार ( सत्कार ) के विरह की स्मृति से आज भी मेरा हृदय टूटता है तथा आग से जलता है । वह तुम ही हो, तुम ही वह हो अथवा वह तुम्हारी बहन होगी । वास्तव में, विधि का वह विलास वाणी के लिए अगोचर ही है । इतने में वह पोपट बोला - "हाँ! हाँ ! यह बात मैंने पहले ही जान ली थी और मैंने तुझे यह कहा भी था। वास्तव में, वह मुनिकुमार कन्या ही था और इसकी बहिन ही है । मेरे ज्ञान से आज मास पूर्ति हुई है तो किसी भी प्रकार से इसका मिलन हो जायेगा ।" " हे पोपट ! यदि विश्व में सारभूत मेरी बहिन को प्राज मैं देखूंगी तो निमितज्ञ ऐसे तुम्हारी मैं कमलों से पूजा करूंगी।" तिलकमंजरी और कुमार ने कहा - " बहुत अच्छा ! हे प्राज्ञ ! तुमने बहुत अच्छा कहा । " इस प्रकार बोलकर उन्होंने पक्षी की उपबृंहणा की । उसी समय झनकार करते हुए नृपुरों से सुशोभित, आकाश से गिरती हुई चन्द्रमण्डली का भ्रम पैदा करने वाली, हंसिनियों के द्वारा ईर्ष्या से एवं हंसों के द्वारा अनुराग से देखी जा रही, अत्यन्त लम्बे आकाशमार्ग को पार करने के श्रम से विह्वल बनी हुई तथा प्रीति व विस्मय सहित कुमार आदि जिसे देख रहे हैं, ऐसी एक दिव्य हंसिनी कुमार की गोद रूपी सरोवर में आ पड़ी भय से कम्पित देह वाली तथा मानों अत्यन्त स्नेह से कुमार के मुख को देखती हुई वह मनुष्य की भाषा में बोली - " सात्त्विक पुरुषों में माणिक्य समान हे शरणागतवत्सल ! हे दयालुकुमार ! मुझे बचाओ, बचाओ, बचाओ । आप जैसे शरण्य को प्राप्त कर मैं आपकी शरण में आयी हूँ । क्योंकि महापुरुष शरणागत के लिए वज्र के पिंजर समान होते हैं ।" " पवन स्थिर हो जाय, पर्वत चलने लगे, पानी जलने लगे, अग्नि शान्त हो जाय, अणु मेरु

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