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श्रावक जीवन-दर्शन / ३३६ वाले पराक्रमी पुरुषों ने उसके अपहरण को देखा और शीघ्र ही वे धीर-वीर पुरुष उसके पीछे दौड़े किन्तु कुछ भी न कर सके । वास्तव में, अदृश्य वस्तु की क्या प्रतिक्रिया हो सकती है ?
कर्णशूल के समान कन्या के अपहरण को सुनकर वज्र से ग्राहत की तरह राजा अत्यन्त दु:खी हो गया । " हे पुत्री ! तू कहाँ चली गयी ? तू अपने दर्शन क्यों नहीं देती ? हे पवित्र पुत्री ! क्या तू पूर्व का महान् प्रेम नहीं रखती है ?" उसके वियोग में राजा इस प्रकार विलाप कर ही रहा था कि सेवक ने आकर राजा को इस प्रकार कहा - "अशोकमंजरी के शोक से जर्जरित बनी तिलकमंजरी पवन से आहत वृक्ष की मंजरी की भाँति अत्यन्त मूच्छित होकर निश्चेष्ट होकर गिर पड़ी है और कण्ठगत प्राण वाली वह अशरण होकर पड़ी है ।"
घाव पर क्षार डालने और जले हुए भाग में हुए फोड़े की भाँति इन वचनों को सुनकर अन्य लोगों के साथ वह राजा शीघ्र ही उस कन्या के पास आया ।
चन्दन रस के सिंचन आदि अनेक उपचार करने पर वह कुछ होश में आई और शीघ्र ही उच्च स्वर से विलाप करने लगी- "हाय ! हाय! मदोन्मत्त हाथी के समान गति वाली हे स्वामिनि ! तू कहाँ है ? तू असीम प्रेमवाली होने पर भी मुझे छोड़कर कहाँ चली गई है ? हाँ, चारों ओर से लगे हुए बारणों की भाँति मैं असुरक्षित हो गई हूँ । तुम्हारे बिना मेरी सब प्राशाएँ नष्ट हो चुकी हैं ।"
३. विरह-वेदना !
" हे तात! मैं जीवित हूँ - इससे बढ़कर विपरीत बात और क्या हो सकती है ? मैं अपनी बहिन के विरह की असह्य पीड़ा को कैसे सहन करूंगी ?" इस प्रकार विलाप करती हुई वह पागल की भाँति धूल में लोटने लगी और जलबिन मछली की भाँति तड़फने लगी ।
दावानल के स्पर्श से खड़ी खड़ी हो सूखती हुई लता की भाँति वह भी इतनी सूख गयी कि किसी को उसके जीवन की आशा नहीं रही। उसी समय वहाँ आयी हुई उसकी माता ने भी जोर से विलाप किया- "हाय ! दुष्टदेव ! निर्दय ! मुझे दुःख क्यों दे रहे हो ? एक ओर मेरी पुत्री का अपहरण हुआ और दूसरी ओर उसके विरह से यह मेरे सामने ही मर जायेगी । हाय ! मेरी सब आशाएँ नष्ट हो गयीं। और मैं भी नष्ट हो गयी । हे गोत्रदेवियो ! हे वनदेवियो ! हे आकाशदेवियो ! तुम शीघ्र ही इसका उपाय कर किसी भी प्रकार से इसे चिरंजीवी करो। "
उसके दुःख से दुःखी बनी उसकी सखियों, दासियों तथा नगर की मुख्य स्त्रियों ने भी अत्यन्त जोर से क्रन्दन किया ।
उस समय वहाँ के लोगों के शोक की तो क्या बात करनी ? उससे अशोक कहलाने वाले वृक्ष भी मानों चारों ओर शोकसंहित हो गये थे । उस समय मानों उनके दुःख के संक्रमण से उद्विग्न बने हुए की भाँति रुकने में असमर्थ सूर्यदेव भी पश्चिम समुद्र में डूब गये ।
वहाँ सर्वगामी अत्यन्त शोक द्वारा दिखलाये मार्ग सुखपूर्वक शीघ्र प्रवेश किया । अन्तःशोक से लोग पहले से बाहर से भी लोगों को आकुल व्याकुल कर दिया, अहो !
से पूर्व दिशा से फैलते हुए अन्धकार ने ही प्राकुल- व्याकुल थे और अन्धकार ने मैली वस्तुओं की चेष्टाएँ भी मलिन ही