________________
श्रावक जीवन-दर्शन/३२६
कुमार के इस कर्णकटु वचन को सुनकर वह किन्नर बोला- "हे कुमार ! कुविचार से तू मेरी व्यर्थ ही विडम्बना क्यों करता है ? मैं तो विश्व में स्वेच्छापूर्वक विलास करने वाला व्यन्तर हूँ। वास्तव में तो तुम ही तिर्यंच समान हो, क्योंकि तेरे पिता ने देव-दुर्लभ दिव्य वस्तु से तुझे एक नौकर की भाँति दूर रखा है।"
"अरे कुमार ! तेरे पिता को किसी दूर द्वीप में नील वर्ण वाला 'समंधकार' नाम का श्रेष्ठ घोड़ा प्राप्त हुआ था। यह घोड़ा खराब राजा की भाँति कृश व वक्रमुखवाला, कान का कच्चा, चंचल स्थिति वाला, स्कन्ध पर अर्गला के चिह्न वाला और क्रोधी है, फिर भी यह घोड़ा सभी लोगों से स्पृहणीय, कौतुक रूप तथा अपनी तथा अपने स्वामी की सर्वांगीण-समग्रऋद्धि का हेतुभूत है।"
कहा है-"मुखमण्डल में मांस रहित, मध्य में परिमित, छोटे कानवाला, स्कन्ध से सुन्दर, बड़ी छाती वाला, स्निग्ध रोमवाला, अतिपुष्ट पृष्ठभाग वाला, विशाल पीठ वाला, तीव्र गति वाला और सकल प्रशस्त गुणों से युक्त घोड़े पर राजा चढ़ा ।
"घुड़सवार के मन की मानों स्पर्धा नहीं कर रहा हो, ऐसा पवन से अधिक वेगवाला वह घोड़ा एक दिन में सौ योजन चला जाता है। लक्ष्मी के अंकुर समान उस घोड़े की जो सवारी करता है वह सात दिन में विश्व में भी आश्चर्यकारी ऐसी वस्तु प्राप्त करता है।"
"अरे ! तुम तो अपने आपको पण्डित मानते हुए भी अपने घर के भी रहस्य को नहीं जानते हो और व्यर्थ ही मेरी निन्दा करते हो।"
___ "जब तुम उस घोड़े को प्राप्त करोगे तब तुम्हारी धीरता, वीरता तथा चतुराई की पहचान होगी।"--इतना कहकर वह किन्नर किन्नरी के साथ आकाश में उड़ गया।
___ यह आश्चर्यकारी बात सुनकर कुमार अपने घर पाया और अपने आपको ठगाये गये की भाँति मानने लगा और गस्से से बेचैन होकर घर के मध्य भाग में जाकर द्वार बंद करके पलंग पर बैठ गया। तब खिन्न हुए पिता ने उसे पूछा-"बेटा ! तुझे क्या तकलीफ है ? जो कुछ भी आधिव्याधि हो वह कहो, जिससे उसकी प्रतिक्रिया कर सकू। क्योंकि बिना बिंधे तो मोतियों का भी कोई अर्थ नहीं होता है।"
पिता के इन शब्दों से खुश हुए उसने दरवाजा खोला और जो भी बात हुई थी और जो बात उसके मन में थी, वह सब उसने कह दी। पिता ने कहा- "इस विश्वोत्तम अश्व से तुम विश्व को देखने हेतु इच्छापूर्वक भ्रमण करो और हम दीर्घकाल तक तुम्हारे वियोग से पीड़ित रहें। बस, इसी आशंका से मैंने आज तक उस अश्व को छिपाये रखा था, किन्तु अब तो वह तुझे सौंपना हो पड़ेगा। किन्तु तुझे जो उचित लगे वह करना।" इस प्रकार कहकर पिता ने उसे वह घोड़ा दे दिया।
"मांगने पर भी नहीं देना, यह तो स्नेह-सम्बन्ध में आग लगाने के समान ही है।"
निर्धन को निधानप्राप्ति की तरह वह भी उस घोड़े को पाकर अत्यन्त खुश हो गया। विशिष्ट अभीष्ट (प्रिय) वस्तु को पाकर कौन खुश नहीं होता है ?