Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

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Page 347
________________ श्राद्धविधि/३३० उसके बाद उदयाचल पर्वत पर आरूढ़ हए सूर्य की भांति वह कुमार मरिण-जड़ित स्वर्णमय पलाण वाले उस घोड़े पर चढ़ गया। उसके बाद अन्य घोड़ों पर आरूढ़, वय और शील से समान मित्रों के साथ वह नगर से बाहर निकल गया। इन्द्र के उच्चैःश्रवा नामक अश्व की भाँति अतुल्य, उत्तम लक्षणों से युक्त घोड़े को वह मैदान में घुमाने लगा। दक्ष रत्नसार उस घोड़े को धोरित, वल्गित, प्लुति और उत्तेजित इन चारों गतियों से फिराता था। सिद्ध जीव जिस प्रकार शुक्ल ध्यान से (मोक्ष में जाते समय) अन्य सभी जीवों को पीछे छोड़ देते हैं, उसी प्रकार रत्नसार घोड़े को पांचवीं गति में ले गया, उससे उसने साथियों को पीछे छोड़ दिया। इसी बीच सेठ के घर पिंजरे में रहा हुआ बुद्धिमान् पोपट कार्य-फल का विचार कर वसुधार को बोला- "हे तात ! मेरा भाई रत्नसारकुमार उस तीव्र वेग वाले घोड़े पर आरूढ़ होकर अभीअभी चल पड़ा है। कुमार कौतुकरसिक और चंचल प्रकृति का है तथा घोड़ा, हरिण के समान उछलकर चलने वाला शीघ्रधावक है। बिजली की चमक की भांति भाग्य की गति बड़ी विचित्र है। हे आर्य! कार्य का क्या परिणाम आयेगा, कुछ कह नहीं सकते। सौभाग्यसिन्धु मेरे भाई का कोई अशुभ नहीं होगा, फिर भी स्नेहीजनों के मन अनिष्ट की शंकावाले होते हैं। सिंह जहाँ भी जाता है वहाँ अपना स्वामित्व चलाता है, फिर भी उसकी माता सिंहनी पुत्र के अनिष्ट की आशंका से दुःखी होती है। ऐसी स्थिति में पहले से ही यथाशक्य प्रयत्न करना श्रेष्ठ है। तालाब तैयार होते ही पाल बाँधना उचित है । अतः हे तात ! यदि आपकी आज्ञा हो तो कुमार की शोध के लिए सैनिक की भाँति मैं शीघ्र गति से जाऊं। कदाचित दुर्भाग्य से कुमार विषम स्थिति में आ जाय तो मैं सुखकारी वचनों के द्वारा कुमार का मित्र भी बनूंगा।" __ अपने मन के अनुकूल ही तोते के वचन सुनकर सेठ खुश हो गया और बोला- "हे श्रेष्ठ तोते ! तुमने बहुत अच्छी बातें कही हैं। हे स्वच्छ मतिवाले! तुम अपनी तीव्र गति से शीघ्र जानी और लम्बे मार्ग में तुम उसके सहायक बनना। लक्ष्मण की सहायता से राम की तरह तुम्हारे जैसे प्रिय मित्र के साथ वह सुखपूर्वक अपने स्थान को पा सकेगा।" बाण की भाँति वह पोपट अनुज्ञा मिलते ही अपने आपको कृतार्थ मानता हुआ पिंजरे में से बाहर निकल गया और शीघ्र ही कुमार से आकर मिला। छोटे बन्धु की भाँति उसे प्रेम से बुलाकर कुमार ने उसको अपनी गोद में बिठा लिया। मनुष्यरत्न (रत्नसार) की प्राप्ति से मानों अत्यन्त गर्वित बने उस अश्वरत्न की सवारी करते हुए उसने मित्र के घोड़ों को नगर की सीमा में ही पीछे छोड़ दिया। विद्वान् से जैसे मूर्ख लोग पीछे ही रहते हैं वैसे ही वे पीछे रहे । प्रारम्भ में ही हतोत्साही बने हुए वे वहीं खड़े रह गये । अत्यन्त तीव्र गति से उछलकर दौड़ता हुआ वह घोड़ा मानों धूल के स्पर्श के भय से पृथ्वी का भी स्पर्श नहीं करता था। मानों उस घोड़े के साथ स्पर्धा न कर रही हो इस प्रकार यह नदी, पर्वत, वन तथा पृथ्वी प्रादि चारों ओर से दौड़ती हुई कुमार को नजर आयी।

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