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श्रावक जीवन-दर्शन / ३३५
" हे शूरवीर ! सूर्य के उदय से रात्रि के बन्धन में से मुक्त होने वाली कमलिनी की भाँति तुम्हारे शुभ कर्म के उदय के कारण दुष्ट ग्रह के बन्धन से उसकी मुक्ति शीघ्र ही सम्भवित है और भाग्ययोग से उस कन्या का शीघ्र ही कहीं भी तुम्हारे साथ संग होगा । भाग्यशालियों को इष्ट वस्तु की सिद्धि होती है ।"
- इस
"मेरे द्वारा सम्भवित बातें कही गयी हैं फिर भी तुम्हें मानने योग्य हैं और अल्प काल में ही सत्य-असत्य का निर्णय हो जायेगा । हे कुमार ! तुम तो सुन्दर विचारक हो ! धीर हो ! तुम व्यर्थ ही दुरालाप-विलाप क्यों करते हो ? पुरुष को इस प्रकार विलाप उचित नहीं है ।" प्रकार पोपट की युक्तिसंगत बात को मन में निश्चित कर कर्त्तव्य को जानने वाला वह शोकमुक्त
बना ।
सचमुच, विद्वान् के वचन से क्या सिद्ध नहीं होता है, उसके बाद वे दोनों उस यतीश्वर ( तापस) को इष्टदेवता की तरह याद करते हुए घोड़े पर चढ़कर पूर्व की तरह मार्ग में आगे बढ़े ।
निरन्तर प्रयारण करते हुए उन दोनों ने हजारों जंगलों, पर्वतों, खानों, नगरों, सरोवरों व नदियों को पार करने के बाद अत्यन्त सुन्दर वृक्षों से सुशोभित एक उद्यान देखा । उस उद्यान के वृक्षों के फूलों पर भ्रमरण करते हुए भ्रमरों के गु ंजन से मानों वह उद्यान कुमार का स्वागत कर रहा था । खुश हुए उन दोनों ने उस उद्यान में प्रवेश किया और वहाँ आदिनाथ प्रभु का नवीन मणिमय प्रासाद देखा ।
मन्दिर के थी --- " हे कुमार ! मूल में घोड़ े को में पहुँचा ।
शिखर पर फहराती हुई ध्वजा कुमार को दूर से बुला रही थी और कह रही इस स्थान में तुम्हें इसलोक व परलोक की वस्तु का लाभ होगा ।" तिलक वृक्ष बाँधकर एवं सुगन्धित फूलों को एकत्र कर वह कुमार पोपट के साथ मन्दिर
विविध पुष्पों द्वारा विधिपूर्वक पूजा करके जागृत प्रकार परमात्मा की स्तुति प्रारम्भ की । " समस्त विश्व के हैं ऐसे देवाधिदेव युगादिदेव परमात्मा को नमस्कार हो । परमार्थ के ही उपदेशक, परब्रह्मस्वरूप परमयोगी को नमस्कार हो ।
बुद्धि वाले उस विधिज्ञ कुमार ने इस ज्ञाता और जिनकी देवता भी सेवा करते परमानन्द के कन्द समान एक मात्र
"परमात्म स्वरूप वाले, परम आनन्द को देने वाले तीन जगत् के स्वामी तथा रक्षक प्रादिनाथ प्रभु को नमस्कार हो ।
"जो योगियों के लिए भी अगम्य हैं और जो महात्माओं के लिए भी प्रणाम करने योग्य हैं तथा जो लक्ष्मी व सुख के जनक हैं, ऐसे विश्व विभु को नमस्कार हो ।"
इस प्रकार उल्लास से पनस फल के समान रोमांचित कुमार ने जिनेश्वर की स्तुति करके तात्त्विक अर्थ की प्राप्ति से अपना प्रवास सफल माना । उसके बाद तृषा से पीड़ित की तरह मन्दिर के चारों ओर से सुख रूपी अमृत का बारंबार पान कर उसने सुख का अनुभव किया। उसके बाद विशिष्ट सौन्दर्य के हेतु ऐसे मत्त हाथी पर बैठा हुआ वह मदोन्मत्त ऐरावण हाथी पर बैठे हुए इन्द्र की भाँति शोभने लगा ।