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श्राद्धविधि/३१६
उसके बाद जिस प्रकार इन्द्र अपने वज्र से पर्वत के पक्ष (पंख) तोड़ देता है, उसी प्रकार हंस ने सूर के सभी हथियार तोड़ डाले। उसके बाद दुर्धर्ष हाथी की भाँति अत्यन्त कोपायमान बना हुया सूर हंस को खत्म करने के लिए वज्र समान मुट्ठी करके दौड़ा। उस समय शंका से मृगध्वज राजा ने शुक की ओर देखा और दक्ष शुक ने हंस की देह में अपनी विद्याओं का संक्रमण किया। उसके बल से हंस ने कंदुक की तरह लीलापूर्वक सूर को उठाकर अपमानपूर्वक दूर फेंक दिया। अपने सैन्य का उल्लंघन कर सूर अपने सैन्य के न्युछन की तरह दूर गिर पड़ा और मूछित हो गया। सेवकों ने उसका जल से सिंचन किया तब बड़े कष्ट से उसने बाह्य चेतना प्राप्त की
और क्रोध के प्रत्यक्ष फल से सुखपूर्वक आभ्यन्तर चेतना प्राप्त की। वह सोचने लगा, "मुझे धिक्कार हो, मैंने क्रोध से व्यर्थ ही पराभव प्राप्त किया और रौद्रध्यान से अनन्त दुःख को देने वाला संसार भी उपाजित किया। इस प्रकार विचार करते हुए उस विशुद्ध आत्मा ने क्रोध के कारण हुए विरोध की बुद्धि छोड़ दी और दोनों पुत्रों सहित मृगध्वज राजा से क्षमायाचना की।
आश्चर्यपूर्वक राजा ने उसे पूछा-"तू पूर्वभव के वैर को किस प्रकार जानता है ?" पूछने पर उसने कहा-"हमारे नगर में श्रीदत्त केवली आये थे, मैंने उन्हें अपना पूर्वभव पूछा। तब उन्होंने कहा--भद्दिलपुर नगर में जितारि राजा था, उसके हंसी और सारसी दो रानियाँ थीं और सिंह नाम का मंत्री था। गाढ़ अभिग्रह वाला वह जब यात्रा के लिए जा रहा था, तब उसने यक्ष के द्वारा स्थापित काश्मीर देशान्तर्गत श्री विमलगिरि तीर्थ में जिनेश्वर को नमस्कार किया। वहाँ पर उसने विमलपुर नगर बसाया और दीर्घकाल तक रहा। समय बीतने पर उसकी मृत्यु हई। उसके बाद सिंह मंत्री उस नगर के सभी लोगों को साथ लेकर भहिलपुर नगर की ओर चला। "माता, जन्मभूमि, अन्तिम रात्रि की निद्रा, इष्टयोग और सुगोष्ठी का त्याग प्राणी के लिए कठिन है।" प्राधे रास्ते को पार करने के बाद मंत्री को वहाँ पर भूलकर आई हुई कोई महत्त्व की वस्तु याद आ गयी। मंत्री ने अपने चरक नाम के सेवक को कहा-"तुम जानो और नगर के अमुक स्थान में रही उस वस्तु को शीघ्र ले आओ।"
उसने कहा-“मैं उस शून्य स्थान में अकेला कैसे जाऊँ ?"
मंत्री ने गुस्सा करके उसी को भेजा। वह वहाँ गया। किसी भील ने वह वस्तु अपने घर में छिपा दी थी, अत: वह वस्तु उसे नहीं मिली। वापस आकर उसने मंत्री से बात कह दी।
मंत्री को गुस्सा पा गया। वह बोला-"तुमने ही यह वस्तु ले ली है।" इस प्रकार कहकर उसको बुरी तरह से पीटा। वह वहीं पर मूच्छित हो गया, उसे वहीं छोड़कर मंत्री आगे बढ़ गया। अहो ! लोभी की मूढ़ता कैसी है ?
क्रमश: मंत्री लोगों के साथ भद्दिलपुर नगर पहुँचा। ठण्डे पवन से चरक पुनः होश में आया। स्वार्थ में तत्पर अपने सार्थ को चला गया देखकर उसने सोचा-"स्वामित्व के गर्व से अभिमानी बने अधर्म को धिक्कार हो।" कहा भी है
"चोर, बालक, गंधी, योद्धा, वैद्य, अतिथि, वेश्या, कन्या तथा राजा ये पर की पीड़ा को नहीं समझते हैं।" इस प्रकार सोचता हुआ, मार्ग को नहीं जानता हुआ, जंगल में जहाँ-तहाँ भटकता हुआ, भूख-प्यास और आर्त-रौद्रध्यान वाला वह मर गया और भद्दिलपुर के वन में अत्यन्त