Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

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Page 338
________________ श्रावक जीवन-दर्शन/३२१ (९) निर्वाण-प्राप्ति ज्ञानसूर्य राजर्षि मृगध्वज अपने चरणकमलों से पृथ्वी को पावन करने लगे और इन्द्र समान पराक्रमी शुक राज्य का पालन करने लगा। अन्यायी चन्द्रशेखर पुनः चन्द्रवती पर अतिस्नेह व शुकराजा पर अत्यन्त द्वेष करने लगा। अत्यन्त क्लेश के वश से उसने दीर्घकाल तक राज्य के अधिष्ठाता गोत्रदेवता की आराधना की। कामान्ध व्यक्ति के कदाग्रह को धिक्कार हो। देवी ने प्रत्यक्ष होकर कहा-"वत्स ! वरदान मांगो।" उसने कहा--"मुझे शुकराज का राज्य दो।" देवी ने कहा- "सिंह के आगे हरिणी का पराक्रम नहीं चलता, वैसे ही दृढ़समकिती शुकराज का पराभव करने की मुझ में कोई शक्ति नहीं है।" तो चन्द्रशेखर ने कहा-"यदि तुम खुश हो तो बल अथवा छल से भी यह कार्य करो।" इस प्रकार के वचन से व भक्ति से खुश हुई उस देवी ने कहा, "यहाँ छल का ही काम है, बल का कोई काम नहीं है। शुकराज के अन्यत्र चले जाने पर तुम वहाँ शीघ्र चले जाना, मेरे प्रभाव से तुम शुकराज के समान हो जाओगे। उसके राज्य को तुम इच्छापूर्वक भोगना।" इतना कहकर वह अदृश्य हो गयी। उसने भी खुश होकर वह बात चन्द्रवती को कह दी। एक बार तीर्थयात्रा की उत्कण्ठा से शुकराज ने अपनी दोनों पत्नियों को कहा- "प्रिये ! तोर्थ को नमस्कार करने के लिए मैं उस आश्रम में जाता हूँ।" उन्होंने कहा-"हम भी साथ चलेंगी, जिससे पिता से भी प्रिय मिलन हो जायेगा।" तब किसी को कुछ भी कहे बिना वह अपनी दोनों स्त्रियों के साथ देव की तरह विमान में बैठकर चला गया। इस बात का किसी को पता नहीं चला। चन्द्रवती ने ये समाचार चन्द्रशेखर को दिये और उसने परकाय में प्रवेश की तरह छल से उस नगर में प्रवेश किया। वह शुकरूप हो गया। लोगों ने भी दाम्भिक नकली सुग्रीव की भाँति उसे शुक रूप में ही पहिचाना । रात्रि में पुत्कार करके वह चिल्लाया, "अरे ! दौड़ो ! दौड़ो! कोई विद्याधर मेरी दोनों पत्नियों का अपहरण करके ले जाता है।" चारों ओर हाहाकार मच गया। सभी मंत्री आदि भी वहाँ आये और बोले, "आपकी विद्याएँ कहाँ चली गयीं ?" दुःखी होकर उसने कहा--"जिस प्रकार यम प्राणों का अपहरण करता है, उसी प्रकार इस दुष्ट ने मेरी विद्याओं का भी अपहरण कर लिया।"

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