Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

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Page 337
________________ श्राद्धविधि/३२० निमग्नबुद्धि वाले राजा ने कहा-"अब मैं दीक्षा स्वीकार करूगा। दास समान इस संसार में मेरा अत्यन्त ही पराभव हुमा है, अब यह राज्य शुक को दे दिया जाय । अब मैं घर नहीं आऊंगा।" ____ मंत्रियों ने कहा- "राजन् ! आप घर पधारें, घर पाने में कौनसा दोष है ? निर्मोही के लिए तो घर भी जंगल है और मोहाधीन के लिए तो जंगल भी घर है। वास्तव में, प्राणियों को मोह से ही बन्धन होता है। इस प्रकार मंत्रियों के आग्रह से राजा परिवार सहित अपने घर आया। चन्द्रशेखर ने राजा सहित चन्द्रांक को देख लिया और उसे यक्ष का वचन याद आ गया। वह किसी को पता दिये बिना किसी उपाय से शीघ्र ही प्राण बचाने की भांति भागकर अपने नगर में चला गया। राजा ने भव्य उत्सव के साथ अपना राज्य शुकराज को प्रदान किया और पुत्र से दीक्षा हेतु अनुमति प्राप्त की। यद्यपि चारों ओर अंधेरा था परन्तु मृगध्वज राजा के मन में ज्ञान का प्रकाश होने से वह सोचने लगा--"कब प्रातःकाल होगा और कब मैं दीक्षा लेकर खुश होऊंगा? और कब मैं निरतिचार पवित्र चारित्र का पालन करूंगा और कब मैं समस्त कर्मों का क्षय करूंगा।" इस प्रकार अत्यन्त उत्कृष्ट शुभध्यान की तन्मयता से उन्होंने अपनी प्रात्मा को ऐसा भावित किया कि प्रातःकाल होते ही रात्रि की समाप्ति की तरह दुष्कर्मों का भी क्षय हो गया और मानों स्पर्धा न हो इस प्रकार सूर्योदय के साथ उन्हें केवलज्ञान भी हो गया। __ इस लोक के लिए किया गया महाप्रयत्न भी निष्फल हो जाता है, जब कि धर्म के संकल्प मात्र से ही केवलज्ञान पैदा हो गया। उसी समय साधुनों में शिरोमणि ऐसे मृगध्वज का, साधु वेष प्रदान करने वाले देवताओं ने भव्य महोत्सव किया। उसी समय प्रमोद व विस्मय सहित शुकराजा आदि भी वहाँ आ गये। उस समय राजर्षि ने अमृत के समान धर्मदेशना देते हुए कहा-“हे भव्यो! इस संसार में साधु-धर्म और श्रावकधर्म दो सेतु समान हैं, प्रथम साधुधर्म सीधा और कठिन है और दूसरा श्रावकधर्म वक्र और सरल है। अब तुम्हें जो उचित लगे, उस मार्ग पर जामो।" तब कमलमाला, अर्हद् धर्म में हंस समान हंसराज तथा चन्द्रांक ने प्रतिबोध पाकर दीक्षा स्वीकार की और क्रमश: वे तीनों मोक्ष में गये। यतिधर्म में श्रद्धा वाले शुकराज आदि ने दृढ़ सम्यक्त्वपूर्वक श्रावकधर्म स्वीकार किया। विरक्त होने से राजषि तथा चन्द्रांक ने कहीं भी असती चन्द्रवती के दुश्चरित्र की बात नहीं की। सच्चा वैराग्य होने पर दूसरों के दोषों की घोषणा करने में क्या फायदा ? भवाभिनन्दी जीवों को ही परनिन्दा में चतुराई होती है। प्रात्मप्रशंसा व परनिन्दा निर्गुणी आत्माओं का लक्षण है और परप्रशंसा व आत्मनिन्दा सदगुणी आत्मानों का लक्षण है।

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