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श्रावक जीवन-दर्शन / २११
पूर्वभव में पाँच सौ साधुनों की सेवाभक्ति करने से बाहुबली जी को चक्रवर्ती से भी अधिक बल की प्राप्ति हुई थी, इससे सेवा का फल ख्याल में आ सकता है ।
'संबाहणं दंतप होश्ररणा य' इस वचन से आगम - निषिद्ध होने से उत्सर्ग मार्ग से तो साधु किसी के पास अपनी सेवा न कराये । अपवाद के रूप में जरूरत पड़े तो प्रथम साधु के पास कराये और साधु न हो तो श्रावक के पास भी करा सकते हैं ।
यद्यपि मुख्यतया गुरु भगवन्त सेवा नहीं कराते हैं फिर भी अपने परिणाम की विशुद्धि से उसके लिए खमासमरण देने से निर्जरालाभ व विनय का लाभ मिलता है ।
5 स्वाध्याय फ्र
उसके बाद अपनी बुद्धि के अनुसार पहले पढ़े हुए दिनकृत्य आदि श्रावक विधि तथा उपदेशमाला, कर्मग्रन्थ आदि का पुनरावर्तन अथवा शीलांगरथ की गाथा अथवा नवकार वलक गिनने आदि रूप स्वाध्याय चित्त की एकाग्रता के लिए अवश्य करना चाहिए ।
* शोलांगरथ का स्वरूप ( 1 ) तीन कररण - करण, करावरण, अनुमोदन = 3
( 2 ) तीन योग - मन, वचन और काया 3x3=9
(3) चार संज्ञा - प्रहार, भय, परिग्रह, मैथुन 9x4 = 36
(4) पाँच इन्द्रियाँ - कान, आँख, नाक, जीभ, स्पर्श 36 × 5 = 180
(5) भूमि श्रादि 10 – पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, वनस्पति, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, अजीव काय 180 × 10 = 1800
(6) दस यतिधर्म - क्षमा, मार्दव, आर्जव, भुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, आकिंचन्य ब्रह्मचर्य 1800 × 10 = 18000
इस प्रकार शीलांग के 18000 भांगे होते हैं । उसका पाठ इस प्रकार समझना चाहिए
आहार संज्ञा व श्रोत्रेन्द्रिय को जीतने वाले क्षमायुक्त जो मुनि मन से पृथ्वीकाय का आरम्भ नहीं करते हैं, उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ । इत्यादि ।
श्रम धर्मरथ का पाठ --
आहार संज्ञा तथा श्रोत्रेन्द्रिय को वश में करने वाले, क्षमासम्पन्न साधु मन से पृथ्वीकाय की हिंसा नहीं करते हैं ।
इस प्रकार सामाचारीरथ, क्षामणारथ, नियमरथ, आलोचनारथ, तपोरथ, संसाररथ, धर्मरथ और संयमरथ के पाठ भी समझने चाहिए । विस्तार भय से यहाँ नहीं कहे गये हैं ।